‘नए सेगमेंट्स उभर रहे हैं और उनमें निवेश हो रहा है’

जेपी मॉर्गन की सीईओ (साउथ एंड साउथ ईस्ट एशिया) कल्पना मोरपारिया ने एम सी गोवर्द्धन रंगन और सलोनी शुक्ला को दिए इंटरव्यू में कहा कि म्यूचुअल फंड में पैसा जोरदार ढंग से आ रहा है और कॉरपोरेट बॉन्ड मार्केट में परिपक्वता के संकेत दिख रहे हैं। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश:

बजट को देखकर कहा जाने लगा है कि इसे चुनावी साल को देखते हुए पेश किया गया है, न कि ग्रोथ को ध्यान में रखते हुए। आपकी क्या राय है?

बजट में रूरल इकनॉमी पर फोकस बढ़ाया गया है। साथ ही इंफ्रास्ट्रक्चर, मेक इन इंडिया और डिजिटाइजेशन में निवेश को बढ़ावा देने पर जोर है। साफ तौर पर यह सब ग्रोथ को ध्यान में रखते हुए किया गया है।

कुछ लोगों का कहना है कि सरकार ने फिस्कल कंसॉलिडेशन के मोर्चे पर समझौता किया। क्या इससे निवेशकों का भरोसा हिल जाएगा?

फाइनेंस मिनिस्टर ने इनडायरेक्ट टैक्स रेवेन्यू के लिहाज से बेहद मुश्कल साल में राजकोषीय अनुशासन कायम रखने का सराहनीय संतुलन दिखाया है। मुझे इस मोर्चे पर निवेशकों का भरोसा हिलने की कोई वजह नजर नहीं आ रही है।

पिछले साल अपनी जरूरतों के लिए पैसा जुटाने के कंपनियों के तरीकों में बदलाव दिखा था। आपके लिए वह सब कितना आश्चर्यजनक था?

1990 के दशक के शुरुआती वर्षों से ही हमलोग कॉरपोरेट बॉन्ड मार्केट को डिवेलप करने के बारे में बात कर रहे हैं। कुछ लोगों ने कहा था कि यह ऐसा प्ले है, जिसके लिए सभी लोग तैयार हैं, लेकिन कलाकार सामने नहीं आ रहे। कंपनियां चूंकि बैंकों से पैसे जुटा रही थीं, लिहाजा बॉन्ड मार्केट को डिवेलप करने का जोर ही नहीं बन पा रहा था। पिछले कुछ वर्षों में हालात हालांकि बदले हैं। आरबीआई ने इंडियन बैंकिंग सिस्टम में कॉन्संट्रेशन रिस्क घटाया है, जिससे कंपनियों पर बॉन्ड मार्केट का रुख करने का दबाव बना। डोमेस्टिक म्यूचुअल फंड में आने वाला पैसा काफी बढ़ा है और इंडिया के सामने से गुजरे बेहद बुरे क्रेडिट साइकल में भी इस रकम का अच्छी तरह प्रबंधन किया गया। बीमा कंपनियों और पेंशन फंड्स के आने और ईपीएफओ के रेटेड बॉन्ड्स के साथ तालमेल बैठाने से अब अच्छी सूरत बनती नजर आ रही है।

हालिया गिरावट को अलग करके देखें तो मार्केट्स में जो तेजी रही है, क्या उसका अक्स रियल इकनॉमी में कहीं झलक रहा है?

हमारी यह शिकायत वाजिब है कि 8 पर्सेंट की उम्मीद के मुकाबले जीडीपी ग्रोथ 6.7 पर्सेंट रहने जा रही है। हालांकि ग्लोबल इकनॉमी पर नजर डालें तो यह खराब ग्रोथ रेट नहीं दिखती है। इंडिया पिछले साल 6 पर्सेंट से ज्यादा ग्रोथ हासिल करते हुए ब्राइट स्पॉट बना हुआ था। हमें पता है कि सुस्ती का एक कारण यह था कि हमने दो साहसिक रिफॉर्म्स किए। जीएसटी से निश्चित तौर पर इकनॉमी को औपचारिक स्वरूप मिलेगा। नोटबंदी से सरकार को कैश रखने वालों के बारे में सरकार को काफी डेटा मिले, जिन्होंने रिटर्न फाइल नहीं किए थे।

कुछ लोगों का कहना है कि जीएसटी ने काफी एसएमई को तकलीफ दी है। क्या इतने ज्यादा लोगों के जीवन में उथल-पुथल मचाना ठीक था?

जीएसटी से वे अस्थिर नहीं हो रहे हैं, बल्कि वे इकनॉमिक प्रोसेस में बेहतर ढंग से भागीदारी करने लायक बन रहे हैं। ऐसे बड़े रिफॉर्म को लागू करने की तकलीफ से हम गुजर रहे हैं। ऐसा टैक्स स्ट्रक्चर अपनाने वाले हर देश को इस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा है। हमने चार स्लैब्स के स्ट्रक्चर के साथ इसे जटिल बना दिया, लेकिन अब यह तीन पर आ गया है और जैसा कि वित्त मंत्री ने संकेत दिया है कि आने वाले समय में इसमें और सुधार किए जाएंगे।

फिर निवेश क्यों नहीं हो रहा है?

डिमांड दिखने से पहले कुछ उत्पादन क्षमता बढ़ाई गई थी और नीतिगत स्तर पर कुछ गतिरोधों के चलते कुछ मामलों में उत्पादन क्षमता उस तरह एडजस्ट नहीं की जा सकी, जैसी होनी चाहिए थी। हालांकि इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड के तहत ऐसी कुछ मुश्किलें दूर होती दिख रही हैं। टेलीकॉम जैसे सेक्टरों में हुए निवेश पर नजर डालनी चाहिए। देखिए कि फ्लिपकार्ट, ओला, उबर, एमेजॉन आदि किस तरह का निवेश कर रही हैं। हम कह रहे हैं कि कोई भी कारखाने नहीं लगा रहा है, लेकिन हम भारत में ऑल्टरनेटिव एनर्जी सेगमेंट में हो रही गतिविधि की बात नहीं करते हैं। यह बात महत्वाकांक्षी लग सकती है, लेकिन भारत इलेक्ट्रिक व्हीकल्स के बारे में सोच रहा है और इसके चलते ट्रांसपोर्टेशन और फ्यूल के मामले में बड़ा बदलाव आएगा। तो इस तरह नए सेगमेंट सामने आ रहे हैं और उनमें निवेश हो रहा है।

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