विचार: अपने लेख के तथ्यों में पूर्व वित्त मंत्री से ज्यादा एक नेता के रूप में दिख रहे हैं यशवंत सिन्हा

आर श्रीराम
जिन लोगों ने पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का अर्थव्यवस्था पर लिखा लेख पढ़ा, उनसे एक सवाल है- क्या सिन्हा सिर्फ पूर्व वित्त मंत्री हैं या एक मंझे राजनेता भी? (पूर्व या मौजूदा) वित्त मंत्री के रूप में आपको हमेशा तथ्यों से चिपके रहना पड़ता है और आंकड़ों के आधार पर अपनी बात रखनी होती है। हालांकि, एक राजनेता के लिए ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। वह तथ्य गढ़ सकता है, चुनिंदा तथ्यों का हवाला दे सकते है, बिना आंकड़े के लांछन लगा सकता है और चित भी मेरी-पट भी मेरी का खेल खेल सकता है! तथ्यों के लिहाज से सिन्हा का कल (बुधवार) का लेख एक राजनेता का जान पड़ता है, न कि किसी पूर्व वित्त मंत्री का।

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उन्होंने लेख की शुरुआत एक गलत सूचना के साथ की। उन्होंने इशारे-इशारे में कह दिया कि लोकसभा चुनाव हारने के तुरंत बाद अरुण जेटली की वित्त मंत्री के तौर पर नियुक्ति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अनुचित पक्षपात भरा कार्य है। बाद में मोदी का नाम लिए बिना उन्होंने उनके काम की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्य के साथ की जिन्होंने 1998 में प्रमोद महाजन और जसवंत सिंह जैसे लोकसभा चुनाव हारनेवालों को कैबिनेट में जगह नहीं दी। दिक्कत यह है कि यह आंशिक सत्य है। सिन्हा ने यह नहीं बताया कि वाजपेयी ने दोनों को सरकार में अन्य जगहों पर काम करने के कुछ दिनों बाद कैबिनेट में शामिल कर लिया था। तब तक महाजन सलाहकार जबकि सिंह योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे थे जो कैबिनेट मंत्री के स्तर का पद होता था! तो सिन्हा जैसे इतने समझदार और विद्वान व्यक्ति ने इसे नजरअंदाज क्यों किया?

सिन्हा ने कहा कि निर्यात घट गया है। आंकड़े हमें क्या बताते हैं? भारत का निर्यात अगस्त तक लगातार 12 महीने बढ़ा और 2016-17 में यह पिछले पांच सालों के सर्वोच्च स्तर पर चला गया। निश्चित रूप से यह आंकड़ा महज 4.7% है और इसकी वजह शायद मौलिक प्रभाव था, लेकिन निर्यात घटा नहीं जैसा कि सिन्हा ने दावा किया। मई से वृद्धि में कुछ गिरावट आई, लेकिन अगस्त से इसने दोहरे अंकों की वृद्धि के साथ फिर रफ्तार पकड़ ली। सिन्हा इतने निराश क्यों हैं, इसकी पुष्टि के लायक कोई सबूत नहीं है।

उन्होंने कहा कि कुल 95,000 करोड़ रुपये के जीएसटी कलेक्शन में से जुलाई में 65,000 करोड़ रुपये का इनपुट टैक्स क्रेडिट है। दरअसल, वह कहना यह चाहते हैं कि जीएसटी से जमा रकम कुछ खास नहीं है। यह बिल्कुल गलत आकलन का मामला है। सिन्हा को कम-से-कम इस आंकड़े से जुड़ा सरकार का वक्तव्य पढ़ लेना चाहिए था। सबसे पहले, आंकड़े में जुलाई से बहुत पहले के टैक्स और स्टेट टैक्सेज के क्रेडिट भी शामिल हैं जिनका पेमेंट हो चुका है। दूसरे, इसमें कुछ कानूनी विवाद के दायरे में आनेवाले टैक्स भी हो सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि आनेवाले महीनों में इतना बड़ा आंकड़ा देखने को नहीं मिल सकता है। इसलिए सिन्हा की टिप्पणी बिल्कुल बेकार है।

लेकिन इन सबके बावजूद ऐसे कुछ तथ्य हैं जिन्हें हमें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। हां, अर्थव्यवस्था की गति मंद पड़ रही है। पहली तिमाही में 5.7% की जीडीपी ग्रोथ से हम सबको चिंतित होना चाहिए। तो क्या कमजोर खेती और लघु एवं मध्यम उद्योगों की परेशानियों की वजह जीएसटी और नोटबंदी है? सिन्हा को तो यही लगेगा कि यह सब जेटली और मोदी की वजह से हुआ है। काश! सारी चीजें इतनी सहज होतीं, लेकिन ऐसा है नहीं।

स्पष्ट है कि कुछ क्षेत्रों में सरकार ने अच्छा काम नहीं किया है। उदाहरण के तौर पर विनिवेश की रफ्तार और तेज होनी चाहिए थी। राज्य सरकारों को कहा जाना चाहिए कि वे बिजली खरीद समझौते से हट नहीं सकते हैं। थर्मल पावर में निजी क्षेत्र का निवेश तेज होना चाहिए था। साथ ही, सरकार को राज्यों को कैंसलेशन वापस लेने के लिए मनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

लेकिन इससे भी बड़ी समस्या निजी क्षेत्र के निवेश की है। यहीं पर इंडियन इंडस्ट्री में विभिन्न स्तर पर सांगठनिक बदलावों के कारण माहौल सुधारने के जेटली और मोदी के प्रयास कमजोर साबित हो सकते हैं। कई बड़ी कंपनियों ने बड़ी निवेश योजनाओं को अंजाम दिया है और वे अब और पैसे खर्च करने के मूड में नहीं हैं। कुछ मध्यम आकार की कंपनियां कर्जों से लदी हुई हैं, इसलिए खर्च नहीं कर सकतीं।

माहौल भांप रहा पैसे से लबालब एक उद्योगपति एक महंगा ग्रीनफील्ड प्लांट खड़ा करने की जगह कर्ज तले दबी संपत्ति सस्ते में खरीदना पसंद करेगा। उसे इसकी अनुमति भी मिलनी चाहिए। यह पूछने से पहले कि निजी पूंजी क्यों नहीं बढ़ रही है, हमें यह जानना चाहिए कि क्या क्षमता उपयोग का स्तर कम होने और बिक्री के इतने बड़े मौकों की उपलब्धता के वक्त ऐसा हो सकता है? ज्यादा खर्च के बाद ऐसा हरेक अर्थव्यवस्था के साथ होता है और इसे सहजता से होने देना चाहिए। ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे आभास हो कि दूसरे कारकों में सुधार के अभाव में भी रेट कट्स से पूंजी निर्माण की प्रक्रिया तुरंत शुरू हो जाएगी।

बैंक लेंडिंग घटा है लेकिन त्वरित बैंक रीकैप प्लान से सारी समस्याएं नहीं सुलझेंगी। दरअसल, इससे और ज्यादा समस्या पैदा हो सकती है क्योंकि इन बैंकों में विभिन्न स्तरों पर दक्षता का अभाव है। हमें नहीं पता कि मौजूदा मंदी तात्कालिक है या कुछ समय तक टिकेगी। अगर तीसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाती है तो स्पष्ट है कि सिन्हा ने महत्वहीन राजनीतिक नजरिया पेश करने की कोशिश में बहुत वक्त बिता दिया।

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