ह्यूमन कम्प्यूटर बनने से लेकर रिश्तों में अनबन की कहानी बयां करती है ‘शकुंतला देवी’ फिल्म, हर नजरिए को दिया गया बराबर स्थान

  • अवधि:- दो घंटा सात मिनट
  • स्‍टार:- चार स्टार

यह फिल्‍म ऊपरी तौर पर ‘ह्युमन कंप्‍यूटर’ शकुंतला देवी की बायोपिक है। बुनियादी तौर पर शकुंतला देवी के सफर पर है जो बिना किसी मशीनी सहायता के जटिल गणि‍तीय पहेलियों को चुटकियों में जुबानी सॉल्‍व कर देती थीं। वह भी महज पांच साल की उम्र से। इस प्रतिभा के दम पर उनके नाम का डंका मैसूर से निकल पूरी दुनिया में बजता रहा। दिलचस्‍प बात यह है कि शकुंतला देवी, उनके परिजनों, शकुंतला की बेटी और उनके संबं‍धों की बदौलत फिल्‍म अन्‍य मुद्दों की भी गहन पड़ताल करती है।

सवालों से घिरी हुई है शकुंतला देवी की कहानी

यह एक मुश्किल सवाल को डील करती है कि ‘दुनिया भर को जीतना भी है और एक जगह टिक कर रहना भी है’। सुनने और करने दोनों में सैद्धांतिक है। इसे व्‍यवहार में बदलना इंसानों के बस में नहीं है। शकुंतला देवी का किरदार बचपन से लेकर बुढापे तक इस द्वंद्व को ढोकर चलती हैं। एक जीनियस की निजी जिंदगी इतनी जटिल भी हो सकती है, वह पता चलने पर अचरज होता है। शकुंतला जीनियस हैं और जीनियसों के पास सवाल बहुत होते हैं। उन सवालों के चलते शकुंतला अपनी मां से उम्र के आखिरी पड़ाव तक नाराज रहती है। अपने अप्‍पा यानी पिता के जिंदगी जीने के तौर तरीके उसे खलते रहते हैं। खासकर जब उसकी दिव्‍यांग बहन शारदा की कम उम्र में मौत हो जाती है।

दुनिया के तौर तरीकों पर सवाल उठाती रही हैं शकुंतला देवी

वह दुनिया के बनाए तौर तरीकों पर पग पग पर सवाल करती है। संतोषप्रद जवाब न मिलने पर वह अपनों को भी नहीं बख्‍शती। चाहे पिता या फिर दो प्रेमी धीरज, हैवियर और फाइनली पति परितोष भी। धीरज उसे बैंगलोर प्रवास और हैवियर लंदन में मिलता है। दोनों शकुंतला के अरमान और समंदर की गहरी ख्‍वाहिशों में फिट नहीं बैठ पाते। परितोष भी शकुंतला का स्‍टेपनी बनकर नहीं रहना चाहता।

कहानी में हर किरदार को दिया गया सही स्थान

डायरेक्‍टर अनु मेनन ने कहानी को शकुंतला रूपी मां और एक सफल औरत के नजरिए से बयां किया है। साथ ही अनु मेनन ने शकुंतला की बेटी अनुपमा और पति परितोष के दृष्टिकोण को भी समान स्‍पेस दिया है। इसके जरिए अनु मेनन यहां उन बच्‍चों की दबी हुई आशाओं, आकांक्षाओं, द्वंद्व को भी जाहिर करती हैं, जिनके परिजन अत्‍यंत सफल हैं। ऐसे में उनकी तुलना स्‍वाभाविक तौर पर परिजनों से होती है। उसका नतीजा बगावत होता है। फिल्‍म उसे बड़े कुदरती तरीके से पेश करती है।

विद्या ने किरदार में भर दी जान

विद्या बालन अत्‍यंत सफल शकुंतला देवी के न‍जरिए को त्रुटिहीन तरीके से पेश करती हैं। युवा शकुंतला से लेकर बुजुर्ग शकुंतला के सफर को उन्‍होंने रोचक, रोमांचक, विचारशील बनाया है। अक्‍सर सफल लोगों खासकर औरतों से समाज आज भी उसी किस्‍म के व्‍यवहार की कामना करता है, जो एक हाउसवाइफ से होती है। वह गलत है। उसे विद्या ने असरदार तरीके से रखा है। सफलता की चाह में मगर अपनों से बहुत दूर जाने का असर भी देखने लायक बन पड़ा है। मां की भूमिकाओं के लिए इंडस्‍ट्री को विद्या आज की ‘मदर इंडिया’ के तौर पर मिल चुकी हैं।

साइड किरदारों का किया गया सही इस्तेमाल

सान्‍या मल्‍होत्रा ने अनुपमा बनर्जी की मां के प्रति खीझ और ख्‍वाहिशों को उचित मूर्त रूप प्रदान किया है। वो ओवर द टॉप कहीं नहीं लगी हैं। अनुपमा के पति की भूमिका में अमित साध ठहराव लेकर आए हैं। पत्‍नी को साइलेंटली सपोर्ट करने वाले शख्‍स के तौर पर वह किरदार ग्‍लानिहीन लगा है। जीशू सेनगुप्‍ता ने परितोष के रोल में विद्या बालन को भरपूर कॉम्पिलमेंट किया है।

कहानी को सही तरीके से किया गया प्ले

फिल्‍म की कहानी लॉन लीनियर तरीके से अतीत, वर्तमान में आती जाती रहती हैं। स्‍क्रीनप्‍ले सटीक तरीके से लिखा गया है। सारे घटनाक्रम सही मौके पर आते रहते हैं। गीत संगीत असर छोड़ते हैं। जापान की डीओपी कियोकी नाकाहारा इससे पहले तान्‍हाजी दे चुकी हैं। इस बार उन्‍होंने लंदन, कोलकाता, बैंगलोर, मुंबई को बखूबी कैप्‍चर किया है। ज्‍यादातर सीन इनडोर के हैं, पर फिल्‍म विजुअली अच्‍छी बनी है।

डायरेक्‍टर अनु मेनन ने स्‍तरीय, परतदार कहानी कही है। यह परिजनों और बच्‍चों सबसे समान रूप से रिश्‍तों में हिस्‍सा लेने को कहती है। एक दूसरे की कद्र, केयर और समझने को कहती है। मां बेटी, और मियां-बीवी के अंतर्संबंधों की आधुनिक और प्रगतिवादी व्‍याख्‍या है यहां।

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Shakuntala Devi film tells the story of differences between relationships, from being a human computer, equal space given to everyone’s perspective

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