सॉफ्ट पावर के बारे में कुछ कड़वी हकीकत

कतर ने फीफा विश्व कप के 22वें संस्करण की मेजबानी के लिए 200 अरब डॉलर से अधिक खर्च किए, जो ऐसे टूर्नामेंट के लिए पहले किसी अन्य मेजबान द्वारा खर्च की गई रकम की तुलना में बहुत अधिक है। पड़ोस में अबु धाबी और सऊदी अरब के साथ फुटबॉल में सरकार के निवेश, विशेष रूप से यूरोपीय फुटबॉल में निवेश के जरिये इस गैस समृद्ध देश ने सॉफ्ट पावर (मूलतः असैन्य कूटनीति जिसमें सांस्कृतिक पहलुओं पर जोर दिया जाता है) बनने का आधार तैयार करने की कोशिश की है।

विडंबना यह है कि इसके लिए इतनी बड़ी मात्रा में पैसा फेंकने से कुछ हासिल नहीं हुआ है। भले ही यूरोप इसके डॉलर और इसके गैस संसाधन को हासिल कर रहा है लेकिन पश्चिमी देशों की नजरों में कतर एक सत्तावादी इस्लामी राजनीति का केंद्र बना हुआ है जो दक्षिण एशिया के श्रम का शोषण उन स्तरों तक करता है जो पूरी तरह से गुलामी की छाया में रचा-बसा हुआ है।

विश्व कप से पहले की ज्यादातर टिप्पणियां इस बात पर ही केंद्रित थीं कि स्टेडियम तैयार करने में कितने श्रमिक मारे गए।
कतर सरकार ने शुरुआत में केवल दो लोगों के मरने का दावा किया था, लेकिन हाल ही में इसने ‘400 और 500 के बीच’ लोगों के मरने की बात स्वीकार की और आंकड़े में अंतर इतना बड़ा था कि इसने देर से सच बोलकर भी हैरान कर दिया।
कतर की छवि प्रबंधन की योजना के परिणाम भारत के लिए भी अच्छे सबक हैं जिसने हाल ही में अगले साल नवंबर में आयोजित होने वाले एक शिखर सम्मेलन की मेजबानी की जिम्मेदारी के साथ ही जी20 की अध्यक्षता संभाली है।

भारत ने शिखर सम्मेलन के नारे में ‘वन अर्थ, वन फैमिली, वन फ्यूचर’ को शामिल किया गया है जिसके इर्द-गिर्द इस बात को लेकर चर्चा चल रही है कि कैसे जी20 की अध्यक्षता से भारत को अपनी ‘सॉफ्ट पावर’ (जिसे इस संदर्भ में भोजन, योग, संस्कृति आदि के प्रमुख केंद्र के रूप में परिभाषित किया है) को दिखाने का अवसर मिलेगा। इसके लिए चुनिंदा शहरों में स्मारकों के सौंदर्यीकरण का काम शुरू होने के साथ ही तैयारी शुरू हो चुकी है।

भारत की समृद्ध समकालिक और बहुसांस्कृतिक विरासत पर गर्व करना हमारे लिए बेहद अहम है लेकिन सॉफ्ट पावर को भारत की अहम विशेषता के रूप में पेश करने का विचार कई कारणों से गलत है। इसकी वजह यह है कि सॉफ्ट पावर की अवधारणा को एक संकीर्ण दृष्टिकोण से देखा जाता है बेहद सामान्य पहलुओं तक ही सीमित होता है। वहीं कुछ के लिए सॉफ्ट पावर कोई ऐसी विशेषता नहीं है जिससे किसी देश को वैश्विक पायदान में कुछ खास तरह के लाभ मिल सकते हैं।

यह विचार किसी देश को आंकने का बेहद व्यापक तरीका है, जैसा कि 1990 के दशक में इस शब्द को गढ़ने वाले हार्वर्ड के प्रोफेसर जोसेफ एस नाय ने इस साल की शुरुआत में एक लेख में हमें याद दिलाया था, जिसका शीर्षक निराशा से भरा था कि ‘सॉफ्ट पावर को क्या हुआ?’ प्रोफेसर ने इसकी परिभाषा दी जिसका जिक्र करना महत्त्वपूर्ण होगा, ‘एक देश की सॉफ्ट पावर मुख्य रूप से तीन स्रोतों से आती है, इसकी संस्कृति, इसके राजनीतिक मूल्य, उदाहरण के तौर पर लोकतंत्र (जब यह उन्हें बरकरार रखता है) और इसकी नीतियां (जब उन्हें वैध रूप में देखा जाता है क्योंकि उन्हें दूसरों के हितों के बारे में जागरूकता के साथ तैयार किया जाता है)।’

यह सॉफ्ट पावर की वह पूर्ण परिभाषा है जिसके बारे में भारत के राजनीतिक नेतृत्व को सोचने की आवश्यकता हो सकती है। निश्चित रूप से, भारत पहले आयाम पर बहुत मजबूत है और यह कहना उचित होगा कि 1990 के दशक के बाद से, बॉलीवुड-योग-चिकन-टिक्का मसाला के मानक से आगे भारतीय संस्कृति की वैश्विक धारणा बढ़ी है। लेकिन, संस्कृति चाहे कितनी भी समृद्ध हो या उसका प्रचार काफी मेहनत से किया गया हो लेकिन प्रोफेसर नाय के अनुसार किसी देश के सॉफ्ट पावर को बढ़ाने में संस्कृति ही बाकी दो अन्य पहलुओं जैसे कि राजनीतिक मूल्य और देश की नीतियां पूरक हो सकती हैं।

इस संबंध में, भारत के सॉफ्ट-पावर रिकॉर्ड को लेकर वास्तविक चिंता दरअसल प्रोफेसर नाई की परिभाषा के दूसरे और तीसरे आयाम यानी राजनीतिक मूल्य और देश की नीतियों की कम होती प्रतिष्ठा है। इस साल कई प्रतिष्ठित वैश्विक सूचकांकों में भारत की रैंकिंग काफी ज्यादा घटी है जो राजनीतिक अधिकारों, प्रेस की स्वतंत्रता, नागरिक स्वतंत्रता आदि से जुड़े मापदंडों के आधार पर देशों का मूल्यांकन करते हैं। भारत की रैंकिंग इतने बड़े पैमाने पर घटी कि प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति (ईएसी) ने उनके तरीकों में खामियों की ओर इशारा करते हुए एक पत्र जारी किया है।

उदाहरण के लिए, फ्रीडम इन द वर्ल्ड इंडेक्स में भारत का स्कोर 2018 के 77वें पायदान से घटकर 2002 में 66 हो गया, वहीं इसे ईआईयू लोकतंत्र सूचकांक के ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ के रैंक में शामिल किया गया था और इसकी रैंकिंग 2014 के 26 से बढ़कर 2021 में 46 हो गई। वहीं स्वीडन की गोटेनबर्ग यूनिवर्सिटी के वी-डेम ने भारत का वर्णन ‘निर्वाचन संबंधी निरंकुशता’ जैसी शब्दावली के साथ किया।

ईएसी का तर्क यह है कि ये निष्कर्ष उन धारणाओं पर आधारित हैं जो सख्त मानकों की तुलना में कम कठोर हैं। यह एक हद तक सही भी है। धारणा-आधारित सर्वेक्षणों के जोखिमों को समझने के लिए आपको छद्म वैश्विक खुशी सूचकांक को देखना होगा। ईएसी इस बात से नाराज है कि कम से कम दो सर्वेक्षणों में भारत को आपातकाल के दौर के बराबर रखा गया है।
लेकिन भारतीयों को अपने लिए सॉफ्ट पावर के गैर-सांस्कृतिक पहलुओं को आंकने के लिए वैश्विक सूचकांकों की आवश्यकता नहीं है। देश में निश्चित रूप से आपातकाल जैसी कोई स्थिति नहीं है। लेकिन जब आपके पास ईडी, यूएपीए, एनआईए, सीबीआई जैसे अधिकारों को सीमित करने वाले कानूनों और संस्थानों की बढ़ती लामबंदी है तब निश्चित रूप से एक खास पीढ़ी के लिए मीसा और सीओएफईपीओएसए के दिनों को भूलना मुश्किल है।

जब आप अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कम करने या उनका दमन करने वाले कानूनों और राजनीतिक आंदोलनों को जोड़ते हैं तब यह दावा करना मुश्किल हो जाता है कि हम सॉफ्ट पावर के सभी मानकों पर खरे उतरते हैं या नहीं।
वैश्विक प्रगति के लिए एजेंडा तैयार करने वाले जी-20 की अध्यक्षता भी भारत को अपनी यही ताकत दुनिया को दिखाने का मौका दे सकती है जो उसके पास है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में अपनी मातृभूमि से भारतीयों के तेजी से पलायन के लिहाज से आकलन करते हुए सॉफ्ट पावर को उनमें शामिल नहीं किया जा सकता है।

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