परिसमापन मूल्य की 201 प्रतिशत वसूली

दिवाला एवं ऋणशोधन अक्षमता संहिता (आईबीसी) के तहत सौंपी गई दबाव वाली इकाइयों का मूल्यांकन पहले ही बहुत खराब हो चुका है, ऐसे में स्वीकार किए गए दावों के साथ वास्तविक मूल्य की तुलना करना संभवतः समाधान प्रक्रिया की प्रभावशीलता का उचित संकेतक नहीं हो सकता है।

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 2021-22 की अपनी ‘वार्षिक रुझान एवं प्रगति रिपोर्ट’ में कहा है कि इसकी तुलना में समाधान मूल्य की तुलना दवाब वाली संपत्ति के परिसमापन मूल्य के साथ की जानी चाहिए। आंकड़ों से पता चलता है कि सितंबर 2022 के अंत तक वित्तीय कर्जदाताओं (एफसी) द्वारा कॉर्पोरेट दिवाला समाधान प्रक्रियाओं (क्रिप्स) के तहत की गई पहल के मामलों में आईबीसी के तहत वसूली, परिसमापन मूल्य के करीब 201 प्रतिशत रही है।

हाल में आईबीसी व्यवस्था के माध्यम से स्वीकार दावों की तुलना में वसूली की गिरती दरों पर चिंता व्यक्त की गई थी। बहरहाल इस व्यवस्था का बचाव करते हुए रिजर्व बैंक ने कहा कि इसके माध्यम से हुई वसूली दबाव वाली इकाइयों के अधिग्रहण को लेकर बाजार की मांग पर निर्भर होती है। साथ ही रिकवरी की दर में कुछ वजहें काम करती हैं। इसमें कुल मिलाकर समग्र आर्थिक माहौल, उस इकाई और उस क्षेत्र की वृद्धि की संभानाएं और इकाई के आंतरिक मूल्य के क्षरण की स्थिति शामिल है।

रिजर्व बैंक ने कहा, ‘व्यापक आधार पर रिकवरी गति पकड़ रही है, ऐसे में यह सभी वजहें वित्तीय समाधान के पक्ष में होने की संभावना है।’ रिजर्व बैंक ने प्री पैकेज्ड दिवाला समाधान प्रक्रिया के विस्तार की भी वकालत की है। इसके तहत अभी उधारी लेने वाले सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यम (एमएसएमई) को शामिल किया गया है, जिसे सभी उधारी लेने वालों तक विस्तारित किया जा सकता है।

रिजर्व बैंक ने कहा, ‘इस व्यवस्था में उधारी लेने वाले सिर्फ सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों (एमएसएमई) को शामिल किया गया है। अगर इसका विस्तार सभी उधारी लेने वालों तक कर दिया जाता है तो भारतीय रिजर्व बैंक के चातुर्यपूर्ण ढांचे के तहत इसे प्रभावी तरीके से लागू किया जा सकता है।’ आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल 2021 में एमएसएमई के लिए लाए गए प्री-पैक दिवाला समाधान प्रक्रिया को अभी गति मिलना बाकी है और इसके तहत सितंबर 2022 तक सिर्फ 2 मामले स्वीकार किए गए हैं।

रिजर्व बैंक ने यह भी कहा है कि समूह समाधान ढांचे से, जिसमें उधारी लेने वालों का समाधान एक ही कॉर्पोरेट समूह से जुड़ा होता है, आईबीसी की प्रभावकारिता सुधारने में मदद मिल सकती है। रिजर्व बैंक ने कहा है, ‘भारत में अक्सर ऋण लेने के समझौते ऋण के जोखिम को कम करने और संयुक्त दायित्वों से जुड़े होते हैं और उधारी लेने वाली कंपनी के मूल समूह द्वारा यह कवर किया जाता है।

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ऐसी व्यवस्था में अगर उधारी लेने वाला चूक करता है तो इसका असर समूह कंपनियों की चूक के रूप में सामने आता है। ऐसे में वित्तीय व्यवस्था में कुल मिलाकर ऋण का जोखिम बढ़ता है।’रिजर्व बैंक के मुताबिक आईबीसी के तहत समाधान आवेदनों को स्वीकार करने में लिए गए वक्त के साथ साथ अंतिम समाधान और परिसमापन का वक्त लगातार बढ़ रहा है। इसमें कहा गया है कि शुरुआती वर्षों की सुस्ती को छोड़ते हुए सरफेसी और कर्ज वसूली न्यायाधिकरण (डीआरटी) ने आईबीसी व्यवस्था को टक्कर दी है।

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