भारत को ओलिंपिक पर दो साल पहले से फोकस करना चाहिए: विश्वनाथन आनंद
|जब पांच बार के विश्व शतरंज चैंपियन विश्वनाथन आनंद भारत में खेलों पर बात करें तो आपको ध्यान से सुनना और पढ़ना चाहिए। 25 साल के प्रफेशनल करियर के दौरान 46 वर्षीय आनंद ने भारत और विदेशों में खेलों के हालात को गंभीरता से देखा है। देखिए, भारत के हालिया रियो ओलिंपिक में प्रदर्शन और आने वाले वाले अहम स्पोर्ट्स इवेंट्स और चेस में उम्मीदों को लेकर उन्होंने क्या कहा है-
क्या आप रियो में भारतीय प्रदर्शन से हैरान हैं?
मैं निराश हूं। लेकिन ऐसा लगता है कि हमने नए अनुशासित खिलाड़ियों का एक पूल तैयार कर लिया है जो 2020 में मेडल जीत सकते हैं।
आपकी नजर में रियो में भारत के लिए सबसे बड़ी निराशाजनक बातें कौन सी रहीं?
मुझे लगता है कि वे खिलाड़ी जो बहुत मेहनत करने के बाद भी बहुत कम अंतर से हारे उन्हें सबसे ज्यादा दुख होगा। आप जानते हैं कि हार बेहद करीबी थी लेकिन फिर भी कुछ ऐसा है जो आपको नजर नहीं आता। मेरी नजर में इन ओलिंपिक खेलों में सबसे सकारात्मक बात यह रही कि हम कई इवेंट्स में बेहद नजदीकी अंतर से हारे। हमें कई नई प्रतिभाएं भी मिली हैं। भारत को जिम्नैस्टिक में कभी मेडल की उम्मीद नहीं होती थी लेकिन मुझे लगता है कि 2020 में हम इसमें एक मेडल जीत सकते हैं।
इस बार भारत 2012 में जीते छह मेडल से आगे नहीं बढ़ पाया, इसके पीछे क्या कारण हैं?
मुझे लगता है कि हम हर चार साल में बहुत उत्साहित हो जाते हैं। मेडल को लेकर बहुत जश्न मनाते हैं। लेकिन हमारा असली ध्यान ओलिंपिक खेलों के दो साल बाद होना चाहिए। यही वह वक्त होता है जब दुनियाभर के खिलाड़ी वर्ल्ड चैंपियनशिप्स या क्वॉलिफाइंग मुकाबलों में भाग लेते हैं ताकि वह ओलिंपिक का हिस्सा बन सकें। मेरी राय में हमें ट्रेनिंग की शुरुआत से ही ओलिंपिक की स्पिरिट को समझना चाहिए।
आप सिस्टम को किस हद तक दोषी ठहराते हैं?
जीत में टाइमिंग सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। उस लम्हे, उस पल, आपको अपना सर्वश्रेष्ठ देना होता है। इन ओलिंपिक खेलों में हमारे कई खिलाड़ी बहुत मामूली अंतर से चूक गए। कुछ ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन भी दिया। तो, हम बेहद करीब थे। लेकिन आपको मेडल जीतने पर मिलते हैं, बहुत करीब से चूकने पर नहीं। मैं आपको अपनी बात बताऊं, कई मुकाबले जिनके लिए मैंने सबसे कठिन तैयारी की, मैं हार गया। दरअसल, कई बार महत्वपूर्ण मौकों पर चीजें क्लिक ही नहीं होतीं।
सिस्टम की बात करें तो क्या आपको लगता है कि अब लाल फीताशाही को दूर करने का वक्त आ गया है! या यह इतना भी आसान नहीं है?
लगभग हर खिलाड़ी का कभी-न-कभी अधिकारियों से जरूर सामना होता है। इसे पूरी तरह हटा देना समस्या का हल नहीं है। हमें एक फ्रेमवर्क तैयार करना होगा। यह बहुत पेचीदा तंत्र है। एक ओर प्रतिभा तलाशने और उन तक पहुंचने के लिए इसकी जरूरत है और दूसरी ओर यह कहीं न कहीं तरक्की को रोकती भी है।
क्या आप अभिनव बिंद्रा की इस बात से सहमत हैं कि भारत को विदेशी खेलों, खास तौर पर ओलिंपिक खेलों, को देखने का अपना नजरिया बदलना चाहिए?
हर चार साल बाद हम इन बातों को दोहराते हैं। लेकिन मैं अभिनव की बातों से सहमत हूं कि हमें ओलिंपिक से आगे बढ़कर जमीनी स्तर से शुरुआत करनी होगी। अगर आपको कोई प्रतिभा नजर आती है तो कैसे ऊपर लाया जाए, यह सवाल महत्वपूर्ण है।
निजी अनुभवों के आधार पर, आपकी नजर में भारत में खिलाड़ियों के लिए बड़ी बाधा कौन सी है?
खेलों के प्रति अभिभावकों का नजरिया बदलने की जरूरत है। सरकार को भी प्रतिभा को पहचानने और उसे निखारने का काम करना चाहिए। लेकिन इसकी तुलना प्राइवेट संस्थानों से नहीं हो सकती जिनके पास बेहतर संसाधन और सपॉर्ट सिस्टम होता है। उदाहरण के लिए ओलिंपिक गोल्ड क्वेस्ट को ही लें। वह अपने संसाधनों का बड़ा हिस्सा प्रतिभा को पहचानने में खर्च करते हैं। लेकिन उनकी असली खूबी हर ऐथलीट के लिए सही टैलंट मुहैया कराना है। इसमें शारीरिक फिटनेस के साथ-साथ फिजियोथेरेपी भी शामिल है। फिटनेस एक ऐसा क्षेत्र है जहां हमें काम करने की जरूरत है। अपनी फिटनेस और धैर्य को टॉप लेवल पर रखने के लिए काफी खास तरह की ट्रेनिंग की जरूरत होती है। सरकार को इसमें साझेदार बनना चाहिए। फेडरेशन को खिलाड़ियों के प्रति अधिक जवाबदेह होना चाहिए। उन्हें खिलाड़ियों के साथ पार्टनर की तरह व्यवहार करना चाहिए न कि पुलिस की तरह।
मुझे याद है कि फेडरेशन के एक अधिकारी ने तेहरान में दूतावास को फोन कर तीन प्रकार का भारतीय भोजन और एक शोफर कार सर्विस मांगी थी। राजदूत को लगा यह सब मेरे (आनंद) के लिए है। उसे इस बात का अंदाजा नहीं था कि फेडरेशन का अधिकारी यह सब सहूलियतें अपनी शॉपिंग के लिए मांग रहा था। यहां तक कि अधिकारी ने मेरे आखिरी मैच से पहले अरुणा (मेरी पत्नी) से भी कहा कि क्या वह भारत वापसी का भी बंदोबस्त कर सकती हैं। तो फेडरेशन को खिलाड़ियों का सम्मान करना चाहिए और कम से कम उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ होना चाहिए।
आप एक ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्होंने ऐसे सिस्टम के बावजूद अपने क्षेत्र में बड़ा नाम कमाया। आखिर कैसे?
उन दिनों खेल ज्यादा मुश्किल था। विदेशी मुद्रा को लेकर हम पर फॉरन एक्सचेंज रेग्युलेशन ऐक्ट (फेरा) को लेकर निर्देश हुआ करते थे। ऐसे में ट्रेनर मिलना मुश्किल होता था। हर इवेंट को तीन मंत्रालयों से अनुमति लेनी पड़ती थी। तो हर बार आपको अनुमति लेने दिल्ली जाना पड़ता था। अगर आपको सब दस्तावेज समय से मिल जाएं तो ठीक वर्ना अपना खाली हाथ लौटना पड़ता था। मेरे पिता रेलवे में थे वह किसी से बात करते थे, जो आगे किसी और से बात करता था और वह अक्सर मेरी मदद करता था। पर यह हमेशा आसान नहीं होता था। जूनियर वर्ल्ड चैंपियन बनने के बाद मैं अपनी यात्रा का खर्च खुद उठाने लगा। कुछ टूर्नमेंट्स के निमंत्रण आने लगे और मुझे कभी अपने खर्चों के लिए फेडरेशन पर निर्भर नहीं रहना पड़ा। देखिये, अगर आपके पास प्रतिभा है तो सही समय पर मौका मिलना बेहद जरूरी होता है। और जब आपको मौका मिले तो आपको अच्छा प्रदर्शन करने के लिए तैयार रहना चाहिए। सौभाग्य से मैंने बड़े आयोजनों में अच्छा प्रदर्शन किया और इससे मुझे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली।
पूर्व सोवियत संघ अपने यहां स्कूली बच्चों को छोटी उम्र से ही शतरंज का बुनियादी प्रशिक्षण देता था और बच्चों के लिए कई तरह की संभावनाएं तलाशता था। जब आपने शुरुआत की तब भारत में हालात बहुत अलग थे। क्या आप अलग ही किस्म के थे?
मैं इसे बहुत स्वाभाविक तरीके से लेता था। हमारे पास बेहद सीमित, या फिर कह लीजिए कि ट्रेनिंग के लिए संसाधन ही नहीं थे, लेकिन उन हालातों में भी हमने अपना सबसे बेहतर दिया। शतरंज के खेल का कौशल मेरे अंदर ताल चेस क्लास के दिनों से आया। आपको मौजूदा संसाधनों को ज्यों का त्यों लेना पड़ता है और उसी में बेहतर करने के बारे में सोचना पड़ता है। मैं शतरंज की ओर बड़े स्वाभाविक तरीके से आकर्षित हो गया था। मैं शतरंज से जुड़ी किताबें पढ़ा करता था। मैं उनमें दिए गए हर गेम को खेला करता था। मुझमें बेहद तेजी से खेलने की प्रतिभा थी, लेकिन मैं राष्ट्रीय स्तर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत तेजी से बढ़ गया। इससे काफी फर्क पड़ा।
क्या भारत से बाहर रहने- शोर-शराबे से बाहर रहने- से कोई फर्क पड़ता है?
करीब 20 साल से मैं भारत और यूरोप दोनों जगह रह रहा हूं। मुझे लगता है कि यह जरूरी था। सबसे पहले, मुझे ज्यादा इवेंट्स में खेलना था। शतरंज ज्यादातर यूरोप में खेला जाता है। ट्रेनर्स भी ज्यादातर यूरोप में ही हैं। इससे मुझे फोकस रहने में मदद मिली। अब मैं निजी कारणों से भारत में रहता हूं। अब शतरंज काफी बदल गया है। अब आप सेकंड्स में रिमोट टीम के साथ जुड़ सकते हैं। तो अब भौगोलिक सीमाएं मायने नहीं रखतीं। अब कड़े ट्रेनिंग कैंप्स में हिस्सा लेता हूं और प्रतिबद्धताओं के प्रति पूरी तरह अनुशासित रहता हूं ताकि मैं शतरंज को अपना 100 फीसदी दे सकूं।
पिछले करीब 25 सालों से हम शतरंज की दुनिया में टॉप पर बने रहे। इतनी लंबे समय तक आप प्रतिद्वंद्वियों से आगे कैसे बने रहे?
मेरे सामने अलग तरह की चुनौतियां थीं, जैसे- चैंपियनशिप जीतना, चैंपियन बने रहना या सिर्फ मेरी रैंकिंग बेहतर करना। मैंने कभी खुद को विश्वनाथन आनंद के तौर पर नहीं देखा। मैंने सिर्फ अपने प्रतिद्वंद्वी के खेल को देखा। मैंने हमेशा यह देखा कि मुझे कैसे अपनी तैयारी करनी है। शतरंज की तैयारी करने में मुझे मजा आता है। मैं पहले लोगों में से हूं, जिन्होंने तैयारियों के लिए किताबों और बोर्ड को छोड़कर मशीन का रुख किया। मेरे आजकल के प्रतिद्वंद्वी शायद इंटरनेट पर ही शतरंज खेलकर बड़े हुए हैं। मुझे आज भी लगता है कि अभी काफी कुछ सीखा जाना बाकी है। मुझे अहसास है कि आपको अपने खेल का आकलन करते रहना चाहिए न कि अपनी साख का।
आप भारत में शतरंज के हालात को कैसे देखते हैं? हरिकृष्ण, शेखर गांगुली, ससि, जैसे कुछ खिलाड़ियों में काफी प्रतिभा है। जिससे लगता है कि हमारे पास काफी गहराई है…
हमारे पास कई प्रतिभावान खिलाड़ी हैं। पहले स्तर पर आप जैसा कि आपने नाम लिया, वे खिलाड़ी हैं। इसके अलावा अधिबन सेतुरमन और मुरली कार्तिकेयन जैसे खिलाड़ी हैं। इसके बाद अरविंद चिदंबरम और प्रज्ञानंद जैसे खिलाड़ी भी मौजूदा दौर में अच्छा खेल रहे हैं। और बेशक, हमारे पास हर्षिका हैं, जो मेरी नजर में विश्व चैंपियन बनने की क्षमता रखती हैं। इसके साथ ही महालक्ष्मी भी हैं। मैं यह बताना चाहूंगा कि हमारे पास कई प्रतिभाशाली खिलाड़ियों का एक पूल है। मैं यह कहना चाहूंगा कि कम से कम अगले 20 सालों तक हम दुनिया के टॉप 10 मुल्कों में बने रहेंगे।
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ें: Two years after Olympics is when India should focus: Anand
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