पिछले साल ​वैश्विक सैन्य खर्चों में बढ़ोतरी के बड़े जिम्मेदार रहे रूस-चीन

अरमिन रोजन
2016 एडिशन के मिलिट्री बैलेंस में रक्षा के मद में दुनियाभर के खर्चों को लेकर दो बातें सामने आईं। एक तो कुछ उत्साहजनक है जबकि दूसरे को उत्साहजनक की कैटिगरी में नहीं रखा जा सकता।

अच्छी बात यह है कि अस्थिरता के दौर से गुजर रहे मध्य पूर्व के देशों में सैन्य खर्चे आश्चर्यजनक रूप से धीरे-धीरे कम हो रहे हैं। वहीं, तेल की कीमतों में गिरावट की वजह से लैटिन अमेरिकी देशों में भी सैन्य खर्चों में पिछले साल कटौती दर्ज हुई है। लेकिन, अमेरिका और उसके सहयोगी देशों से अक्सर अदावत रखने वाले दुनिया के दो सुपर पावर ने इसी दरम्यान सैन्य खर्चों में बढ़ोतरी में बड़ी भूमिका निभाई। ये दोनों देश हैं- रूस और चीन।

दुनिया भर की आर्म्ड फोर्सेज की स्थिती पर इंस्टिट्यूट ऑफ इंटरनैशनल ऐंड स्ट्रटीजिक स्टडीज की सालाना रिपोर्ट के नतीजों पर संस्था के असोसिएट गिरि राजेंद्रन ने लिखा, ‘2015 में रूस के डिफेंस बजट में दहाई अंकों की वास्तविक वृद्धि ने पिछले साल ग्लोबल डिफेंस बजट के इजाफे में दबदबा कायम किया। यह 2015 में दुनियाभर के सैन्य खर्चों में हुई बढ़ोतरी का पाचवां हिस्सा है।’

इधर, पेइचिंग ने भी अपने सैन्य खर्चों को इसी तरह बढ़ाया। राजेंद्रन ने लिखा, ‘वैश्विक सैन्य खर्चों में वृद्धि में चीन का हिस्सा भी बहुत बड़ा (5वें हिस्से से कुछ ही कम) है। चीन ने साल 2000 से चली आ रही परंपरा को कायम रखते हुए 2015 में भी अपने बजट में दहाई अंक की वृद्धि की। 2010 का साल इस परंपरा का एक अपवाद रहा है।’

राजेंद्रन के मुताबिक, एशियाई देश अपनी सेना पर अभी कुल 100 बिलियन डॉलर (करीब 6,824 अरब रुपये) खर्च कर रहे हैं। यह नाटो के यूरोपीय सदस्य देशों के कुल सैन्य खर्चों से ज्यादा है। वह भी तब जब यूक्रेन संकट और मॉस्को से लगी सीमाओं पर यूरोप के साथ जारी अनबन के मद्देनजर नाटो की सेना अभी ऐक्टिव है।

कुल मिलाकर, रूस और चीन खुद को भविष्य के संघर्षों के लिए तैयार कर रहे हैं। इस वजह से सैन्य खर्चों में इन दोनों देशों की बेतहाशा वृद्धि पूरी दुनिया के उन प्रयासों पर पानी फेर रही है जिसके तहत सभी देश सैन्य खर्चों में कटौती को महत्व दे रहे हैं।

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