नेपाल: प्रचंड की राह में चुनौतियां अपार

नेपाल के लामजुंग जिले में 14 नवंबर को चुनाव प्रचार के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओइस्ट सेंटर) के प्रमुख पुष्प कमल दहल ने कहा था कि वह गठबंधन के पूर्व सहयोगी रहे के पी शर्मा ओली से कभी हाथ नहीं मिलाएंगे। दहल प्रचंड के नाम से भी मशहूर हैं। प्रचंड ने कहा, ‘वह (ओली) हिटलर की तरह शासन करने की कोशिश कर रहे थे।’ 15 नवंबर को दहल और ओली दोनों के निजी स्टाफ ने कहा था कि दोनों नेताओं ने एक-दूसरे से बात की है।

दहल के निजी सचिव रमेश मल्ला ने नेपाल के सबसे जाने-माने डिजिटल समाचार मंच ‘ऑनलाइन खबर’ को इस बातचीत के बारे में बताया। मल्ला ने कहा, ‘उन्होंने (ओली ने) कहा कि चलो साथ मिलकर काम करते हैं। लेकिन यह कैसे होने जा रहा है, यह स्पष्ट नहीं किया गया।’ क्रिसमस के दिन, दहल ओली के सहयोग से तीसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने यह सफलता कैसे हासिल की, इसकी कहानी दिलचस्प है।

नेपाल में नवंबर में हुए आम चुनाव के नतीजे काफी हद तक उम्मीद के मुताबिक रहे। इस चुनाव में त्रिशंकु संसद की तस्वीर बनती दिखी जिसमें न तो शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाली नेपाली कांग्रेस (89 सीटें) और न ही ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (78 सीटें) (यूनाइटेड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) को बहुमत मिला। लेकिन चुनाव पूर्व समझौते के कारण देउबा और प्रचंड के एक साथ जाने की पूरी संभावना दिख रही थी। प्रचंड की पार्टी के पास केवल 32 सीटें थीं। लेकिन इसने जल्दी से और बेहद चतुराई के साथ खुद को किंगमेकर की भूमिका में खड़ा कर दिया।

नेपाल में अब आधे कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री होना वर्जित बात नहीं मानी जाती है। इस बार सवाल यह था कि पहले 30 महीनों के लिए सरकार का नेतृत्व कौन करेगा, देउबा या प्रचंड? और देश का राष्ट्रपति और सदन का अध्यक्ष कौन होगा? नेपाल में, दोनों पदों को व्यापक संवैधानिक शक्तियां प्राप्त हैं, खासतौर पर ये पद तब महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं जब सरकार बनाने और तोड़ने की बात आती है। प्रचंड प्रधानमंत्री के रूप में पहला कार्यकाल चाहते थे।

हालांकि देउबा का मानना था कि महज 30 सांसदों के साथ प्रचंड शर्तें तय नहीं कर सकते। उन्हें नहीं पता था या शायद उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की थी कि जैसे ही चुनावी नतीजे आने लगे, प्रचंड ने पहले से ही छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों से संपर्क करना शुरू कर दिया था और उन्होंने सभी तरह की पेशकश की थी। उदाहरण के तौर पर इनमें नागरिक उन्मुक्ति पार्टी के नेता रेशम चौधरी भी थे। चौधरी जेल में थे और पुलिसकर्मियों को मारने के लिए भीड़ को उकसाने के लिए उन्हें आठ साल की सजा सुनाई गई थी।

प्रचंड ने उनके परिवार को फोन किया और उनसे कहा कि मंत्रिमंडल की पहली कार्रवाई एक अध्यादेश पारित करना होगा जिसकी वजह से चौधरी जेल से बाहर निकलेंगे। नेपाल में विश्लेषकों ने भविष्यवाणी करना शुरू कर दिया कि उनकी पार्टी के पास केवल 32 सीटें हो सकती हैं लेकिन प्रचंड ने 60 सीटों पर अपना नियंत्रण कर लिया है। इनमें जनमत पार्टी, नागरिक उन्मुक्ति पार्टी और कई निर्दलीय भी शामिल थे।

ओली को इस खेल से पूरी तरह बाहर होने का खतरा नजर आ रहा था। समय की व्यावहारिक मांग को देखते हुए और संभवतः कड़वाहट से भरे हुए ओली ने प्रचंड को एक प्रस्ताव दिया जिसे वह अस्वीकार नहीं कर सकते थे। ओली ने उन्हें पहले चरण में प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया। इसी वजह से 275 सदस्यीय सदन में 32 सांसदों वाला एक व्यक्ति नेपाल का प्रधानमंत्री बन गया। लेकिन इस विचित्र गठबंधन का, देश और व्यापक भू-राजनीतिक तस्वीर के लिए क्या सार्थकता है खासतौर पर जब राजशाही का विरोध करने वाले लोग राजशाही की पैरोकार राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के साथ हाथ थामे हुए और कट्टर दुश्मन रहे ओली और प्रचंड एक-दूसरे का हाथ थामे हुए है? सात दल अलग-अलग विचारधाराओं और हितों के साथ एक गठबंधन में साथ आए हैं।

इसमें दो की भूमिका अहम है, जिसमें प्रचंड के नेतृत्व वाला माओइस्ट सेंटर और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (संयुक्त मार्क्सवादी-लेनिनवादी) शामिल है। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वतंत्रता पार्टी, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी, जनमत पार्टी और नागरिक उन्मुक्ति पार्टी भी हैं। सरकार में माओवादी और मार्क्सवादी दलों की उपस्थिति के बावजूद, यह एक वामपंथी सरकार नहीं कही जा सकती है। प्रचंड और ओली दोनों ने आखिरकार 50 करोड़ डॉलर के अनुदान के साथ अपने सड़क और बिजली नेटवर्क को बेहतर बनाने के लिए नेपाल में अमेरिकन मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (एमसीसी) के प्रवेश की अनुमति दी।

सरकार में तीन उप प्रधानमंत्री हैं जिनमें एक यूएमएल, माओवादी और तीसरे एक पूर्व टीवी एंकर जो अब गृह मंत्री बन गए हैं। इस वक्त यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि गठबंधन किस दिशा में जाएगा।
लेकिन देश के क्षितिज पर बड़ी चुनौतियां दिख रही हैं जैसे भारत के साथ संप्रभुता और सीमा प्रबंधन से जुड़े मुद्दे। इसके अलावा भारत जिस अग्निपथ योजना को शुरू कर रहा है उससे भारतीय सेना में, विशेष रूप से गोरखा रेजिमेंट में नेपाल से होने वाली भर्ती पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। चुनावों के दौरान अग्निपथ कोई मुद्दा नहीं था, संभवतः इसी वजह से नेपाल पर इसका पूरा प्रभाव समझ में नहीं आया था। माओवादियों ने रोजगार के मुद्दे पर विचार किए बिना अपने युवाओं के विदेशी सेनाओं में शामिल होने पर आपत्ति जताई है।

प्रचंड के नेतृत्व में भारत चीन के साथ संतुलन की उम्मीद कर सकता है। प्रचंड भारत को जानते हैं (वह भूमिगत रहने के दस वर्षों के दौरान आठ वर्षों तक हरियाणा में रहे)। लेकिन ओली प्रचंड को अपने (और अपनी पार्टी के) नजरिये से चीजों को दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। पहले भी ओली भारत के महान मित्र साबित नहीं हुए हैं। ऐसे में अपने कार्यकाल के दौरान प्रचंड को लग सकता है कि वह तीन मोर्चों पर यानी अपनी ही सरकार के भीतर के घटकों, भारत और चीन को शांत करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

इसमें एक अतिरिक्त आयाम भी है। नेपाल कई वर्षों से चीन से भागने वाले तिब्बतियों के लिए शरणस्थली रहा है। मार्च 2022 में विदेश मंत्री वांग यी की यात्रा के दौरान, ऐसी उम्मीद थी कि नेपाल चीन के साथ ‘भोटे’ समूह के लिए प्रत्यर्पण संधि पर हस्ताक्षर करेगा। हालांकि ऐसा नहीं हुआ। लेकिन आज उनकी चिंता बहुत बढ़ी होगी। नेपाल में करीब 20,000 पंजीकृत तिब्बती शरणार्थी हैं। हालांकि, देश में उनकी कोई पहचान नहीं है और वे न तो जमीन खरीद सकते हैं और न ही काम कर सकते हैं।

भारत और अमेरिका दोनों ने सुझाव दिया है कि नेपाल को उन्हें किसी तरह का कानूनी आश्वासन जरूर देना चाहिए। स्पष्ट कारणों की वजह से नेपाल उस रास्ते पर जाने के लिए अनिच्छुक दिखता है। प्रचंड के नेतृत्व वाले गठबंधन के सामने तात्कालिक समस्या यह है कि वह अपनी वित्त व्यवस्था को दुरुस्त करें और कोविड के बाद आजीविका से जुड़े मुद्दों का समाधान करे। आंतरिक स्तर पर सरकार से जुड़े विरोधाभासों का प्रबंधन करना एक बड़ा मुद्दा हो सकता है।

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