नीरव मोदी फ्रॉड से यह सीख सकते हैं बैंक
|बैंक कस्टमर्स की एक आम शिकायत यह है कि जब भी वे कॉल सेंटर या नेट बैंकिंग के जरिये कोई काम करना चाहते हैं, तब उन्हें कई पासवर्ड डालने पड़ते हैं और प्रोसेस पूरा करने में काफी वक्त लगता है। आपकी मेल या फोन पर ओटीपी आता है, जिसे एंटर करना पड़ता है और उसके बाद ही आप ट्रांजैक्शन पूरा करने की तरफ बढ़ते हैं। उन्हें लगता है कि जब इतने मामूली काम के लिए इसकी कड़ी प्रक्रिया है, फिर एलओयू के जरिये पैसों का लेनदेन इतनी आसानी से कैसे हो जाता है। आखिर वहां इस तरह के चेक एंड बैलेंस क्यों नहीं हैं।
पीएसबी की एक ब्रांच में हालिया फ्रॉड कई मायनों में हैरान करता है। इससे पहली बात तो यह साबित होती है कि सिस्टम फूलप्रूफ नहीं है। जब बैंकों में टेक्नॉलजी का कम इस्तेमाल होता था, तब हर लेवल पर अप्रूवल मैन्युअली करना पड़ता था। अब यह काम ऑटोमेटेड हो गया है। सिस्टम एफिशिएंट है। इसे हैक करना या इससे छेड़छाड़ करना भी आसान नहीं है क्योंकि कई ट्रांजैक्शंस रियल टाइम बेसिस पर होते हैं।
दूसरी बात यह है कि इस मामले में सिर्फ वही बैंक फेल नहीं हुआ, जिसने एलओयू जारी किए थे। जहां इन्हें भुनाया गया, उनसे भी चूक हुई। इसलिए समस्या सिर्फ एक बैंक तक सीमित ना होकर पूरे सिस्टम से जुड़ी है। इस मामले में जहां समस्या स्विफ्ट के इस्तेमाल से जुड़ी थी, वहीं टैंपरिंग के कई ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जिनका शायद अभी तक पता नहीं चला हो। तीसरी बात ऑडिट प्रोसेस से जुड़ी है। सभी बैंकों का सालाना ऑडिट होता है। फिर 7 साल तक यह फर्जीवाड़ा क्यों पकड़ में नहीं आया। इसलिए प्रोसेस को मजबूत करना एक चुनौती है क्योंकि सिस्टम में इस तरह की खामी कहीं और भी हो सकती है।
इस मामले में ऑडिटर्स को ब्लेम करना आसान है, लेकिन सच यह है कि कोई भी सिस्टम परफेक्ट नहीं होता। किसी भी एंटिटी के सभी कामकाज का 100 पर्सेंट ऑडिट नहीं किया जा सकता। उसमें खामी की आशंका बनी रहती है। चौथी बात यह है कि बैंकिंग सिस्टम आज ऐसे मोड़ पर है, जहां चिंता क्रेडिट रिस्क से ऑपरेशंस रिस्क तक पहुंच गई है। लोन देने के रिस्क को अच्छी तरह नहीं समझ पाने की वजह से एनपीए की समस्या सामने आई। अब यह प्रॉब्लम ऐसे मोड़ पर पहुंच गई है, जहां बैंकों को मजबूत बनाने के लिए फंड की कमी हो गई है। बैंकों को अब रिस्क के साथ फ्रॉड पर एक साथ ध्यान देना होगा।
पांचवीं बात यह है कि यह मामला सरकारी बैंकों से जुड़ा है। इसलिए भरोसा बहाल करने की जिम्मेदारी सरकार की बनती है। फाइनल रकम जो भी हो, बैंकिंग सिस्टम को उसके लिए अपने संसाधनों से प्रोविजनिंग करनी पड़ेगी। कई बैंकों की नेटवर्थ में पहले ही काफी कमी आ चुकी है। इसका मतलब यह है कि वे इस लॉस के लिए भुगतान नहीं कर सकते। इस मामले में सरकार को दखल देकर फंड देना चाहिए। हालांकि, इससे सरकारी खजाने पर भी दबाव बढ़ेगा। केंद्र के सामने पहले ही फिस्कल डेफिसिट टारगेट को पूरा करने की चुनौती है।
(लेखक केयर रेटिंग्स के चीफ इकनॉमिस्ट हैं)
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