‘जलेबी’ सी मिठास घोलती रहेगी शाहिद की हॉकी

टॉम अल्टर
वह महानतम् थे। शाहिद की याद में मेरे गालों पर लुढ़कते आंसू एक तस्वीर सी उकेरे जा रहे हैं। ‘जलेबी’ की तस्वीर। आढ़ी-तिरछी सी रेखाओं से बनी तस्वीर। एक-दूसरे काटती हुईं लकीरें। कभी यहां और कभी वहां जातीं रेखाएं। कुछ वैसी ही जैसी शाहिद ने अपने मूव्स से हॉकी के मैदान पर ‘जलेबियां’ बनाईं। ऐसी जलेबियां जिनकी मिठास कभी खत्म नहीं होगी।

1982 का हॉकी वर्ल्ड कप। शाहिद और जफर की जोड़ी। लेफ्ट-इन और लेफ्ट आउट। मैं और मेरा सबसे करीबी मित्र सैनी, शाहिद और जफर को मैदान पर जादूगरी करते देख रहे थे। उनके इस हुनर से एम.एफ. हुसेन को इश्क हो जाए। मिर्जा गालिब उनके दीवाने हो जाएं। और शम्मी कपूर को उन पर नाज़ होने लगे।

यह जोड़ी सिर्फ हॉकी नहीं खेल रही थी। यह जोड़ी चित्रकारी कर रही थी। यह हॉकी से संगीत रच रही थी। हॉकी की धुन पर नाच रहे थे वे दोनों। वह शाहिद का मूव था- जलेबी- इन ऐंड आउट। तेजी से यहां, तेजी से वहां। स्टिक एक ओर और बॉल दूसरी ओर।और फिर गेंद डिफेंडर को लगभग वशीभूत करती हुई आगे निकल जाती।

यह 1985 का साल था। पाकिस्तानी टीम सात ऐतिहासिक सीरीज खेलने भारत आई। शाहिद और पाकिस्तान के हसन सरदार का दुनिया में कोई तोड़ नहीं था। और भारत व पाकिस्तान हॉकी के दिग्गजों में शुमार थे।

1984 ओलिंपिक में हमें गोल्ड मेडल जीतना चाहिए था। खूबसूरत और सभ्य जफर इकबाल ने मार्च-पास्ट में तिरंगा थाम भारतीय दल की अगुआई की। लेकिन भारतीय दल क्वॉर्टर फाइनल में जर्मन चुनौती से पार नहीं पा सका। सच में उस रात शाहिद और जफर कितना रोए होंगे।

हां, हमने 1980 में ओलिंपिक गोल्ड जीता था। लेकिन, इन खेलों के पीछे की कहानी हम सब जानते हैं। 1984 फिर हमारा साल हो सकता था। यह वह आखिरी टीम थी जिसने हॉकी को उस अंदाज में खेला, जिसमें उसे खेला जाना चाहिए। 1996 की टीम भी हालांकि एक अच्छी टीम थी।

शाहिद भाई, क्या आपको याद है वह, जब हम चाय पर, खाने पर गप्पें मारा करते थे। आप और जफर व अनिल और मैं? लेकिन शाहिद हॉकी के दिलीप कुमार थे। ट्रेजिक हीरो। हॉकी बदल गई थी। वह एक कॉर्पोरेट गेम बन गई थी। यहां अब हर मूव प्लान होता था। मैदान पर घास भी नकली थी और फिटनेस के मापदंड भी बदल गए थे।

शाहिद को अब आजादी चाहिए थी। एक ऐसा कैनवस चाहिए था जिस पर वह अपनी मर्जी के रंगों से खेल सकें। 1986 में शाहिद बतौर कप्तान नाकाम साबित हुए। 1988 का ओलिंपिक आते-आते वह अपने अतीत की परछाई मात्र रह गए थे। इस बीच एक बाप अपनी बेटी की बीमारी के दर्द को महसूस कर रहा था। और आखिर शाहिद ने खेल को अलविदा कहने का फैसला किया।

लेकिन वह महानतम थे… हॉकी के आखिरी हीरो… ध्यानचंद की उस जादुई परंपरा के आखिरी खिलाड़ी…

शाहिद भाई, पूरा देश, असली हिन्दुस्तान, ऐसा हिन्दुस्तान जो जागरूक है। जिसे परवाह है। ऐसा हिन्दुस्तान हमेशा आपके साथ रहेगा।

जफर भाई, बताइए जरा क्या यह सच नहीं है। क्या यह सच नहीं कि आप और शाहिद हमेशा हमारे दिलों में बसे रहेंगे… और अब आंसू मेरे दिल पर जलेबी की तस्वीर उकेर रहे हैं।

(लेखक जाने-माने बॉलिवुड ऐक्टर हैं)

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