इसलिए भारत के हक में है नेपाल की सत्ता से केपी शर्मा ओली का जाना
|रविवार को नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को आखिरकार कुर्सी छोड़नी पड़ी। ओली का नेपाल की सत्ता से जाना इंडिया के हक में कहा जा रहा है। जब से ओली ने नेपाल की सत्ता संभाली थी तब से भारत के साथ संबंधों में भारी कड़वाहट आई। ओली ने अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने से पहले ही इस्तीफा दे दिया। ओली के इस्तीफे के बाद काठमांडू में प्रचंड के नेतृत्व में माओवादी-नेपाली कांग्रेस की सरकार बनने की राह साफ हो गई है।
ओली के इस्तीफे से साफ हो गया है कि उनकी घरेलू और विदेशी नीतियों में कई समस्या थी। खास कर भारत से दूरी और चीन से बढ़ती करीबी ओली के भविष्य पर भारी पड़ी। ओली के सत्ता से जाने के बाद काठमांडू में बहस शुरू हो गई है कि राष्ट्रपति बिद्या भंडारी नेपाल के संविधान में आर्टिकल 350 की व्याख्या कैसे करेंगी। आखिर नेपाल में नई सरकार कैसे बनेगी?
नेपाली कांग्रेस नेता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने जोर देकर कहा है कि नई सरकार बनाने की शक्ति संसद के पास है। ओली ने खूब कोशिश की कि राष्ट्रपति उन्हें कार्यवाहक प्रधानमंत्री घोषित कर दें। नेपाल की राजनीति पर करीबी से निगाह रखने वालों का कहना है कि ओली का रहना उनकी पार्टी पर भारी पड़ता बल्कि नेपाल के लिए भी लगातार चुनौती खड़ी हो रही थी।
598 सदस्यों वाली संविधान सभा में नेपाली कांग्रेस के 183, सीपीएन-एमसी के 70 और सीपीएन-यूनाइटेड के तीन सांसदों का समर्थन था। संसद में इन तीनों पार्टियों के 292 सांसद थे। ओली ने कहा, ‘मैंने इस संसद में नए प्रधानमंत्री के चुने जाने का रास्ता साफ कर दिया है। राष्ट्रपति को इस्तीफा सौंप दिया है।’ ओली के इस्तीफे के साथ ही अपनी सुस्ती और भारत विरोधी पहचान वाली 287 दिन पुरानी इस सरकार का अंत हो गया है।
ओली के सत्ता से बेदखल होने से कई संकेत मिलते हैं- पहला मधेसियों (देश की कुल आबादी में 51 पर्सेंट मधेसी हैं) के मुद्दे पर इस सराकर में भारी मतभेद था। इसका नतीजा यह हुआ कि इंडिया-नेपाल सीमा पर महीनों नाकेबंदी चली। दूसरा 2015 में आए भूकंप से निपटने में ओली सरकार बेहद सुस्त रही। तीसरा ओली के कार्यकाल में अल्ट्रा-राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला। इसमें इंडिया के प्रति विरोध की भावना फैली और चीन के प्रति सहानुभूति।
ओली सरकार ने 6 महीने बाद चीनी सीमा पर पेट्रोलियम सप्लाई वाले ट्रकों का जोरदार स्वागत किया था। अब साफ है कि चीन के साथ नेपाल का एनर्जी या थियानजिन ट्रांजिट रूट पर कोई ठोस अग्रीमेंट नहीं हुआ था। ओली की प्रतिबद्धता के बावजूद नेपाल और चीन के बीच कोई मजबूत साझेदारी नहीं बन पाई।
2015 में नाकेबंदी को लेकर इंडिया की खूब आलोचना हुई। इंडिया ने नाकबंदी के जरिए महत्वपूर्ण मेसेज दिया कि वह नेपाल के संविधान को समावेशी बनाया जाए। उसमें भेदभाव वाले उपबंधों को खत्म किया जाए। प्रधानमंत्री मोदी ने भी समावेशी संविधान बनाने की अपील की थी। उन्होंने समावेशी संविधान टर्म का इस्तेमाल नेपाली नेतृत्व से जोर देकर किया था। इंडिया को डर था कि यदि नेपाल के संविधान में मधेसियों को पूरा हक नहीं दिया जाता है के आने वाले महीनों या सालों मे इसका बहुत बुरा असर पड़ेगा।
भारत के रुख की आगे चलकर नेपाल में भी पुष्टि हुई। प्रचंड नेपाल के अगले पीएम हो सकते हैं। इंडिया नेपाल में नई सरकार को भरपूर समर्थन देगा। इसके साथ ही भारत नेपाल के साथ रणनीतिक साझेदारी को मजबूती से बहाल करेगा। ओली ने अपने बयान में कहा था, ‘नेपाल विदेशी ताकतों की साजिश लिए एक प्रयोगशाला बन गया है। ये ताकते नहीं चाहती हैं कि नेपाल में संविधान लागू नहीं हो।’
इस संकट के बीच भारत की तरफ से आधिकारिक सूत्रों का कहना है, ‘अब समस्याओं को दूर कर लिया जाएगा। हालांकि नेपाल लोकतंत्र की दिशा में लगातार बढ़ रहा है।’ नेपाल की सरकार ने मधेसियों से किए दो वादे पूरे कर दिए हैं। इसके बाद तीन और मसलों पर काम किया जा रहा है। ये हैं- नागरिकता, सीमांकन और नेपाली संसद के अपर हाउस में मधेसियों का प्रतिनिधित्व। अगली सरकार के अजेंडों में ये मुद्दे अहम रहेंगे। इसके साथ ही नैशनल बजट को भी पास करना है।
चीन ने असमान्य रूप से नेपाल की राजनीति में भारत विरोधी व्यूह को फैलाया। चीन ने नेपाल की लेफ्ट पार्टियों को भी इसमें जोड़ने की कोशिश की। मई में वे प्रचंड के माइंड को भी बदलने में कामयाब रहे। हालांकि प्रचंड को नेपाल की जमीनी राजनीति से बिल्कुल अलग फीडबैक मिला। पिछले कुछ हफ्तों में चीनी अधिकारियों ने ओली और उनके नाराज सहयोगियों के बीच संबंध सुधारने में कड़ी मेहनत की। सबसे पहले राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ने साथ छोड़ा। इसके बाद एमजेएफ (डी) के बिजय गच्चेदार ने जिन्हें मधेसियों और थारुओं को समर्थन है, भी अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन किया।
चीन ने पूरी कोशिश की कि पाकिस्तान की तरह नेपाल को भारत का पड़ोसी बना दिया जाए। लेकिन जिस तरह से महिंदा राजपक्षे को चीन श्रीलंका में दोबारा सत्ता नहीं दिला पाया उसी तरह नेपाल में भी नाकाम रहा। नेपाल में एंटी-इंडिया भावना को खूब भड़काया गया ताकि इंडिया को एक और झगड़ालु पड़ोसी का सामना करना पड़े। अब इंडिया इस फिर से चीजें हासिल करने की तरफ देख रहा है।
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