विकसित देशों में बिक रही दवाओं को क्लीनिकल ट्रायल से छूट!
|[ सोमा दास | नई दिल्ली ] जो नई दवाएं पहले से ही विकसित देशों में बेची जा रही हैं, उन्हें भारत में क्लीनिकल ट्रायल से छूट दी जा सकती है। हालांकि यह तभी हो सकेगा, जब इस मामले के एक्सपर्ट्स इन दवाओं को सुरक्षित और प्रभावी करार दे देंगे। इंडियन ड्रग इंडस्ट्री को यह छूट मिलने से देश में इन दवाओं का यूज शुरू हो जा सकेगा। यह छूट उस स्टडी को ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया की तरफ से मंजूरी मिलने के बाद लागू होगी, जो नई दवाओं के परफॉर्मेंस की मॉनिटरिंग (पोस्ट मार्केटिंग सर्विलांस) के लिए डिजाइन की गई है। इंडिया की टॉप ड्रग सेफ्टी बॉडी ड्रग टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड ने इस बारे में एक फैसला किया है। DTAB के एक मेंबर ने कहा, ‘अमेरिका और यूरोपियन यूनियन जैसे सख्त रेगुलेशन वाले मार्केट्स में नई दवाओं को मंजूरी गहन वैज्ञानिक छानबीन और व्यापक क्लीनिकल ट्रायल्स के रेगुलेटरी रिव्यू के बाद मिलती है। ये ट्रायल्स कई देशों में होते हैं। ऐसे कई मामलों में इंडिया में बड़े ट्रायल दोहराए जाने से नई दवाओं की लॉन्चिंग कुछ साल तक लटक ही जाती है।’ अभी ऐसे अनिवार्य ट्रायल में 100 से 400 वॉलंटियर्स शामिल होते हैं और ये एक से चार साल तक चलते हैं और बीमारी दिक्कततलब हो तो वक्त और लंबा खिंचता है। परिभाषा के हिसाब से जो दवा पहले कभी इंडिया में पेश नहीं हुई है, वह यहां नई दवा मानी जाएगी, भले ही वह विदेश में वर्षों से बिक रही हो। दवा मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों ने इस कदम का स्वागत किया है। उनका कहना है कि अगर सरकार ट्रायल दोहराने की पॉलिसी फॉर्मेलिटी खत्म कर देती है तो इंडिया में नई दवाओं को पहले के मुकाबले ज्यादा जल्दी पेश किया जा सकेगा। ल्यूपिन के एग्जिक्यूटिव वाइस प्रेसिडेंट धनंजय बखले ने कहा, ‘मौजूदा पॉलिसी में इस दिक्कत दूर करने की कवायद बड़ा प्रगतिशील कदम होगा। क्लीनिकल ट्रायल का आकलन दवा के सामाजिक दायित्वों के निवर्हन और अनिश्चितता से निपटने की कोशिश से किया जाना चाहिए। इस हिसाब से नीति के हिसाब से इन ट्रायल्स पर सवाल उठ सकते हैं क्योंकि इससे दोहराव होता है और इनसे चीजें बेहतर नहीं होतीं।’ बखले के मुताबिक, कई बार तो ऐसा हो जाता है कि चार या पांच जेनेरिक दवा कंपनियां अपनी तेजी से बाजार में लाने के लिए एकसाथ एक ही दवा का जरूरी क्लीनिकल ट्रायल कराती हैं। 2006 से 2010 के बीच दुनियाभर में कुल 140 न्यूली डिस्कवर्ड ड्रग्स दवाएं लॉन्च हुई थीं। IMS हेल्थ ग्लोबल की 2012 की स्टडी के मुताबिक, इनमें से सिर्फ 39 यानी महज 28 पर्सेंट ही इंडियन मार्केट में मिल रही थीं। हालांकि इसकी एक वजह यह हो सकती है कि अमेरिकी और यूरोपियन इनोवेटर फर्म्स इंडिया की पेटेंट पॉलिसी को संदेह की नजर से देखती हैं और उनको लगता है कि वे कहीं इंडिया में अपनी मोनोपॉली राइट्स नहीं खो दें।
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