हॉकी की सूरत बदलने के लिए छोड़ दी नौकरी
|रोहित उपाध्याय, नई दिल्ली
हॉकी में भारत की स्थिति आज भले ही बहुत अच्छी न हो लेकिन कभी भारत इस खेल का बादशाह हुआ करता था। आठ ओलिंपिक गोल्ड इस बात की तस्दीक करते हैं। वक्त के साथ-साथ हमारी स्थिति खराब होती गई। फिर 2008 में ऐसा वक्त आया जब भारत ओलिंपिक के लिए क्वॉलिफाइ भी नहीं कर पाया। इस बात ने देशभर के हॉकी प्रेमियों का दिल तोड़ दिया। एक ऐसे ही एक शख्स थे के. अरुमुगम।
आईआईटी, बॉम्बे से पास वॉटर एक्सपर्ट अरुमुगम उस समय सरकारी नौकरी कर रहे थे, लेकिन इस खबर ने उन्हें इतना परेशान किया कि नौकरी छोड़ हॉकी स्टिक उठा ली और उतर पड़े मैदान में। उनका इरादा था कि वह हॉकी की सूरत जरूर बदलेंगे।
अरुमुगम ने बताया, ‘इतने गौरवशाली इतिहास के बावजूद 2008 के ओलिंपिक खेलों में भारत का क्वॉलिफाइ ना कर पाना हॉकी प्रेमियों के लिए सदमे जैसा था। तब मुझे लगा कि हॉकी के लिए कुछ करना चाहिए।’
अरुमुगम ने महसूस किया कि देश में हॉकी की बुनियाद ही कमजोर हो चुकी है। बच्चों में इस खेल के प्रति अधिक रूचि ही नहीं है। उन्होंने महसूस किया कि बच्चों को इस खेल से रूबरू कराने और उनकी प्रतिभा को निखारना बेहद आवश्यक है। खास तौर पर उन बच्चों को जिनके पास प्रतिभा तो है लेकिन सुविधा नहीं। अरुमुगम ने OTHL (वन थाउसजेंड हॉकी लेग्स) की स्थापना की और ऐसे बच्चों की तलाश जारी कर दी। पुडुचेरी में सबसे पहले बच्चों को खोज उनके खेलने की व्यवस्था की फिर चेन्नै, कानपुर, कोलकाता और फिर राजधानी दिल्ली।
आखिर खिलाड़ियों को चुना कैसे जाता है इस बारे में अरुमुगम ने बताया, ‘हम स्कूलों में जाते हैं प्रिंसिपल से परमिशन लेते हैं। छठी-सातवीं के बच्चों का चयन करते हैं और उन्हें हॉकी किट देते हैं। बच्चों की ट्रेनिंग बेहतर हो इसके लिए कोच भी रखते हैं। बच्चों की रूचि इस खेल में बनी रहे इसके लिए नियमित तौर पर उन्हें हॉकी मैच दिखाने भी ले जाते हैं।’
लगभग 8 साल बीत चुके हैं। अरुमुगम का लगाया पौधा अब फल देने लगा है। 2500 बच्चों में से कई राष्ट्रीय स्तर तक खेल चुके हैं और वह दिन दूर नहीं जब ये खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में देश के लिए खेलेंगे।
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