हंबनटोटा पोर्ट पर यूं चीन के शिकंजे में फंसता गया श्री लंका

हंबनटोटा
श्री लंका के तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने जब भी अपने सहयोगी देश चीन से लोन और महत्वाकांक्षी बंदरगाह परियोजना के लिए सहायता मांगी तो कभी उसके लिए इनकार नहीं किया गया। हालांकि फिजिबिलिटी रिपोर्ट यह कहती रही कि यह बंदरगाह काम नहीं करेगा। यहां तक कि भारत जैसे कई देशों ने इसके लिए इनकार कर दिया। परिणाम यह रहा कि महिंदा राजपक्षे के कार्यकाल में श्री लंका का कर्ज बढ़ता ही चला गया।

न्यू यॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक कई साल तक निर्माण कार्य चलने के बाद और चीनी कंपनी चाइना हार्बर इंजिनियरिंग लिमिटेड से कई बार करार होने के चलते इसकी लागत कभी बढ़ गई है। इसके बाद भी हंबनटोटा पोर्ट डिवेलपमेंट प्रॉजेक्ट को फेल करार दिया जा रहा है। दुनिया के सबसे व्यस्ततम शिपिंग लेन्स में से हर साल हजारों जहाज निकलते हैं, लेकिन हंबनटोटा से 2012 में सिर्फ 34 जहाज ही निकले और उसके बाद यह पोर्ट चीन का हो गया।

राजपक्षे 2015 में सत्ता से बेदखल हो गए, लेकिन नई बनी सरकार इस प्रॉजेक्ट की पेमेंट करने के लिए संघर्ष करती रही। चीन के साथ कई राउंड की बातचीत और भारी दबाव के बाद सरकार ने उसे 15,000 एकड़ जमीन 99 साल के लिए पिछले साल दिसंबर में सौंप दी। श्री लंका के इस कदम के बाद चीन को प्रतिद्वंद्वी भारत के कुछ सौ मील दूर ही अपने पैर जमाने का मौका मिल गया। चीन के लिए यह सैन्य और व्यापारिक दोनों नजरिए से बढ़त थी।

यह मामला चीन की उस रणनीति का सबसे अच्छा उदाहरण है, जिसके तहत वह किसी भी देश को लोन और अन्य तरीकों से अपना प्रभाव में लेता है और वहां अपनी मजबूत पकड़ बना लेता है। चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बेल्ट ऐंड रोड प्रॉजेक्ट को लेकर भी इसी तरह की आशंकाएं जताई जा रही हैं।

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