सेंसर बोर्ड से कैसे पास होती हैं फिल्में:इसके पास बैन करने का अधिकार नहीं; बिना कट के कैसे पास हो गई ‘उड़ता पंजाब’

अक्सर देखा जाता है कि किसी फिल्म को बैन कर दिया जाता है। प्रोड्यूसर को सेंसर सर्टिफिकेट के लिए काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। क्या वाकई में सेंसर बोर्ड को किसी फिल्म को बैन करने का अधिकार है? ‘उड़ता पंजाब’ में बोर्ड ने करीब 89 सीन कट करने का निर्देश दिया था, लेकिन कोर्ट ने इस फिल्म को सिर्फ एक कट के साथ रिलीज करने की मंजूरी दे दी थी, जो कि ना के बराबर था। आज रील टु रियल के इस एपिसोड में जानेंगे कि सेंसर बोर्ड की क्या कार्य प्रणाली है। फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट मिलने का प्रोसेस क्या है। एक प्रोड्यूसर को फिल्म का सेंसर सर्टिफिकेट पाने के लिए किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस पूरे प्रोसेस को समझने के लिए हमने सेंसर बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष पहलाज निहलानी और प्रोड्यूसर श्रीधर रंगायन से बात की। क्या है सेंसर बोर्ड? सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) को सेंसर बोर्ड के नाम से भी जाना जाता है। यह एक वैधानिक संस्था है जो सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आती है। यह संस्था भारत में बनने वाली फिल्मों को रिलीज से पहले उनके कंटेंट के हिसाब से सर्टिफिकेट देती है। यह सर्टिफिकेट सिनेमैटोग्राफी एक्ट 1952 के तहत आता है। भारत में कैसे हुआ सेंसर बोर्ड का गठन भारत में 1913 में पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनी थी। इसके बाद इंडियन सिनेमैटोग्राफी एक्ट 1920 में बना। यह तब मद्रास (चेन्नई), बॉम्बे (मुंबई), कलकत्ता (कोलकाता), लाहौर (पाकिस्तान) और रंगून (यांगून, बर्मा ) सेंसर बोर्ड पुलिस चीफ के अंडर आता था। पहले रीजनल सेंसर्स स्वतंत्र थे। आजादी के बाद रीजनल सेंसर्स को बॉम्बे बोर्ड ऑफ फिल्म सेंसर्स के अधीन कर दिया गया। उसके बाद 1952 में सिनेमैटोग्राफ एक्ट लागू होने के बाद बोर्ड का ‘सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सेंसर्स’ के नाम से पुनर्गठन हुआ। 1983 में फिल्म के प्रदर्शन से जुड़े एक्ट में कुछ बदलाव किए गए और इस संस्था का नाम ‘सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन’ यानी ‘सीबीएफसी’ रखा गया। सीबीएफसी के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति कौन करता है? सीबीएफसी के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है। इस संस्था के मेंबर किसी सरकारी पद पर नहीं होते हैं। फिल्म को रिलीज से पहले सेंसर बोर्ड द्वारा गठित टीम को दिखाया जाता है। इस टीम में पांच मेंबर होते हैं। जिसमें से दो पुरुष, दो महिला और एक सीबीएफसी का अधिकारी होता है। फिल्म देखने के बाद मेंबर तय करते हैं कि फिल्म को किस कैटेगरी के सर्टिफिकेट के साथ पास करना है। क्या सीबीएफसी को फिल्म बैन करने का अधिकार है? सिनेमैटोग्राफी एक्ट 1952 और सिनेमैटोग्राफी के नियम में 1983 में आए बदलाव के मुताबिक सेंसर बोर्ड किसी भी फिल्म पर बैन नहीं लगा सकता है। वह सिर्फ फिल्म को सर्टिफिकेट देने से इनकार कर सकता है। ऐसी स्थिति में फिल्म थिएटर में रिलीज नहीं की जा सकती है। सीधे तौर पर यह बैन जैसी ही स्थिति होती है। केंद्र सरकार ने इस मसले पर 31 मार्च 2022 को राज्यसभा में कहा था कि सेंसर बोर्ड किसी फिल्म को बैन नहीं कर सकता, लेकिन सिनेमैटोग्राफी एक्ट के तहत दिशानिर्देशों के उल्लंघन पर सर्टिफिकेट देने से मना जरूर कर सकता है। सीबीएफसी कैसे काम करता है? सीबीएफसी यानी सेंसर बोर्ड के पास फिल्म के सर्टिफिकेशन के लिए अधिकतम 68 दिनों का समय होता है। पहले फिल्म के आवेदन की जांच की जाती है। इसमें एक हफ्ते का समय लगता है। इसके बाद फिल्म को जांच समिति के पास भेजा जाता है। उनके पास फिल्म की जांच के लिए 15 दिनों का समय होता है। जांच समिति फिल्म को सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पास भेजती है। सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष फिल्म की जांच के लिए अधिकतम 10 दिनों का समय ले सकता है। इसके बाद 36 दिनों के भीतर सेंसर बोर्ड आवेदक को जरूरी कट्स के बारे में जानकारी और सर्टिफिकेट प्रदान करता है। सेंसर बोर्ड के नाम को लेकर कन्फ्यूजन क्यों है? दैनिक भास्कर से बातचीत के दौरान बॉलीवुड के जाने-माने प्रोड्यूसर और सेंसर बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने कहा कि लोग ‘सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन’ और सेंसर बोर्ड के नाम को लेकर कन्फ्यूजन में हैं। निहलानी ने कहा- मिनिस्ट्री से लेकर पब्लिक तक इस कन्फ्यूजन में हैं कि इसे क्या बोलना चाहिए। मेरे कार्यकाल में केंद्रीय सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर ने इंडस्ट्री में यह हवा फैला दी थी कि सेंट्रल सर्टिफिकेशन बॉडी है, लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सीबीएफसी सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन है या सेंसर बोर्ड। सोशल मीडिया के कंटेंट के लिए सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं मैंने अपने कार्यकाल में सबको गाइडलाइन के हिसाब से फिल्म बनाने की सलाह दी थी, ताकि किसी को तकलीफ ना हो, लेकिन उस वक्त ऐसा माहौल था कि फिल्म ‘ओमकारा’ में बहुत सारे कट्स देने पड़े। क्या कूल हैं हम, ग्रैंड मस्ती जैसी फिल्मों में डबल मीनिंग डायलॉग और गालियों की भरमार थी। जब यह फिल्में यूट्यूब पर रिलीज हुईं तो बहुत सारे लोगों ने इसकी शिकायत कोर्ट में की। कोर्ट ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) को लताड़ा कि कैसे यह सब पास कर सकते हो? हमारी लीगल टीम ने स्पष्ट किया कि सोशल मीडिया पर सेंसर सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं होती है। मेकर्स ने दर्शकों के बीच क्यूरियोसिटी बढ़ाने के लिए अनकट सीन के साथ फिल्म यूट्यूब पर रिलीज कर दी थी। किसी को नहीं पता कि ‘उड़ता पंजाब’ कैसे पास हो गई पंजाब सरकार नहीं चाहती थी कि फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ पास हो, क्योंकि फिल्म ड्रग के बैकग्राउंड पर थी। हमने सेंसर बोर्ड की गाइडलाइन के हिसाब से कुछ कट्स देकर फिल्म को पास कर दिया। फिल्म कोर्ट में गई। कोर्ट ने कहा था कि सेंसर बोर्ड का अधिकार सिर्फ फिल्मों को प्रदर्शन के लिए प्रमाणित करना है, उन्हें सेंसर करना नहीं। दर्शकों को तय करने दीजिए कि उन्हें क्या देखना है और क्या नहीं। हर व्यक्ति की अपनी पसंद होती है। बता दें कि सेंसर बोर्ड ने फिल्म में करीब 89 सीन कट करने का निर्देश दिया था, लेकिन फिल्म बिना कट के पास हो गई। पहलाज निहलानी ने कहा- किसकी ताकत से फिल्म पास हुई, आज तक किसी को नहीं पता। फिल्म वल्गर, ऑफेंसिव और कम्युनिटी के खिलाफ है फिल्ममेकर श्रीधर रंगायन की फिल्म ‘गुलाबी आइना’ (The Pink Mirror) को सेंसर बोर्ड ने बैन कर दिया था। श्रीधर रंगायन कहते हैं- मैंने 2002 में 40 मिनट की फिल्म ‘गुलाबी आइना’ सेंसर बोर्ड को भेजी थी। इस फिल्म को बैन कर दिया गया। तीन बार अप्लाई किया, लेकिन हर बार यही जवाब मिला कि फिल्म वल्गर, ऑफेंसिव और कम्युनिटी के खिलाफ है। यह फिल्म दो ड्रग क्वीन किरदारों की फनी, कॉमिक कहानी थी, लेकिन शायद सेंसर बोर्ड को यह पुरुष प्रधान सोच के खिलाफ लगी। मैंने सवाल किया कि जब मैं खुद उस कम्युनिटी का हिस्सा हूं, तो इसे कोई और कैसे जज कर सकता है? फिर भी मंजूरी नहीं मिली। हमें कहा गया कि अपीलेट ट्रिब्यूनल (सीबीएफसी) से अलग एक अपील कमेटी, जहां सेंसर बोर्ड के फैसलों को चुनौती दी जाती है) में जाएं, लेकिन हमने ऐसा नहीं किया। सेंसर बोर्ड में क्या बदलाव आया है? हमारी फिल्म ‘इवनिंग शैडोज’ को UA सर्टिफिकेट मिला। सेंसर बोर्ड ने कहा था कि इसमें होमोसेक्शुअलिटी और ट्रांससेक्शुअलिटी का जिक्र है। इसलिए इसे एडल्ट कंटेंट माना जाएगा, लेकिन हमने समझाया कि फिल्म में कोई सेक्शुअल कंटेंट या वॉयलेंस नहीं था। यह एक लड़के की कहानी थी, जो अपनी मां को बताता है कि वह गे है और फिर मां की दुविधा को दिखाया गया है। आखिरकार सेंसर बोर्ड हमारी बात से सहमत हुआ और ‘इवनिंग शैडोज’ को UA सर्टिफिकेट दे दिया। सेंसर बोर्ड अभी भी पुराने नियमों पर चलता है मैं मानता हूं कि होमोसेक्शुअलिटी और ट्रांससेक्शुअलिटी को सेंसर बोर्ड की नियमावली से पूरी तरह हटा देना चाहिए। सेंसर बोर्ड अब भी पुराने नियमों पर चलता है। असली बदलाव तभी आएगा जब नियम बदलेंगे। सीबीएफसी को सिर्फ फिल्मों को सर्टिफिकेट देने का काम करना चाहिए, न कि उन्हें सेंसर करने का। सेंसरशिप उनका काम नहीं है, लेकिन वे फिल्मों में कट्स लगाते हैं, जो उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। अगर कोई फिल्म किसी दर्शक वर्ग के लिए उपयुक्त नहीं है, तो सेंसर बोर्ड उसे ‘अनफिट’ करार दे सकता है, लेकिन कंटेंट पर कैंची चलाना सही नहीं है। कई देशों में रेटिंग सिस्टम काम करता है और वहां सेंसरशिप सीमित है। सेंसर बोर्ड में बदलाव की जरूरत क्यों है? सीबीएफसी को नैतिकता की पहरेदारी से बचना चाहिए। सबसे जरूरी बदलाव यह है कि बोर्ड में सिर्फ सीनियर और पारंपरिक सोच वाले लोग ही न हों, बल्कि यंग जेनरेशन, अलग-अलग बैकग्राउंड के लोग LGBTQ+ कम्युनिटी और अलग-अलग विचार धाराओं के लोग भी शामिल हों। इससे चीजों को बैलेंस नजरिए से देखा जा सकेगा और सेंसरशिप ज्यादा ट्रांसपेरेंट होगी। फिल्ममेकर्स को अपनी जिम्मेदारी भी समझनी चाहिए? सेंसर बोर्ड को कट लगाने से पहले कई पहलुओं पर विचार करना चाहिए, लेकिन फिल्ममेकर्स को भी दर्शकों की संवेदनाओं का ध्यान रखना चाहिए। OTT प्लेटफॉर्म्स पर कुछ कंटेंट जरूरत से ज्यादा हिंसक और आपत्तिजनक होते हैं। इसकी एक सीमा होनी चाहिए। आजकल मेंटल हेल्थ की प्रॉब्लम्स बढ़ रही हैं और कुछ सीन्स लोगों के लिए ट्रिगरिंग हो सकते हैं। मैं नहीं कहता कि ऐसे सीन्स हटाए जाएं या बैन हों, लेकिन फिल्ममेकर्स को खुद ही यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि वे शुरुआत में एक क्लियर वॉर्निंग दें। ________________________________________________________________________________________________ पिछले हफ्ते की रील टु रियल की यह स्टोरी भी पढ़ें.. बायोपिक फिल्में बनाना आसान नहीं:फिल्म संजू में फैक्ट्स गायब थे; स्क्रिप्ट के हर पेज पर सिग्नेचर जरूरी, गलत छवि दिखाने पर मानहानि का केस आज ‘रील टु रियल’ के इस एपिसोड में हम जानेंगे कि बायोपिक फिल्मों के लिए किस तरह से राइट्स लिए जाते हैं। किताब पर फिल्म बनाने के लिए किससे राइट्स लेने पड़ते हैं। राइट्स लेने के बाद भी फिल्म मेकर्स को किस तरह की चुनौतियां आती हैं। पूरी स्टोरी पढ़ें..

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