सार्थक और स्थायी बाजारअर्थव्यवस्था की ओर

समय के साथ भारत ने यह प्रयास किया है कि एक नियोजित अर्थव्यवस्था से आगे बढ़कर एक सार्थक बाजारोन्मुखी अर्थव्यवस्था तैयार की जाए। सरकार को क्या नहीं करना चाहिए यह तो कमोबेश हम सभी जानते हैं। परंतु इस बारे में अ​धिक जानकारी नहीं है कि सरकार को अभी भी क्या करने की जरूरत है या किन बातों पर उसे जोर देना चाहिए। यहां वास्तविक चिंता इसी बात की है।

अनुबंध प्रवर्तन और संप​त्ति के अधिकारों के लिए सम्मान बाजार अर्थव्यवस्था में बहुत अहमियत रखते हैं। बहरहाल, यह केवल तभी संभव है जब हमारे यहां न्यायपालिका जैसी संस्थाओं में काफी सुधार तथा उल्लेखनीय विस्तार हुआ हो। फिलहाल इस मोर्चे पर गंभीर कमजोरियां हैं। इतना ही नहीं कानून के राज में निरंतरता की भी आवश्यकता है, न​ कि उसके चयनित इस्तेमाल की। सरकार को इन सब में बदलाव लाना होगा।

फिलहाल सरकारी योजनाओं और परियोजनाओं पर काफी जोर दिया जा रहा है। लेकिन जरूरत इस बात की है कि नीतियों को प्रभावी बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। पूंजीवाद की अपनी महत्ता है लेकिन जरूरत यह भी है कि सांठगांठ वाले पूंजीवाद पर नजर रखी जाए। भारत में कारोबारी सुगमता में अपेक्षाकृत सुधार हुआ है। लेकिन कारोबार शुरू करने के बारे में नहीं कहा जा सकता कि यह भी सुगम हुआ है। बाजार में मुक्त प्रवेश कहीं अ​धिक सार्थक प्रतिस्पर्धा मुहैया कराता है।

स्टार्टअप की सफलता कुछ हद तक तकनीक से जुड़े कारोबारों तक सीमित है। सरकार को कारोबार में प्रवेश को सार्थक ढंग से बेहतर बनाना होगा। ऐसा करने से सरकार को उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना के लिए तय दो लाख करोड़ रुपये के बजट को कम करने में भी मदद मिल सकती है।

देश में अभी भी सरकारी क्षेत्र काफी बड़ा है और उसके कई हिस्से गैर किफायती हैं। यह भी स्पष्ट नहीं है कि इसका बड़ा हिस्सा कुछ सामाजिक लक्ष्यों की प्रा​प्ति में सहायता कर भी रहा है या नहीं। ध्यान रहे इन लक्ष्यों को आ​​र्थिक दृ​ष्टि से हासिल नहीं किया जा सकता है। केवल विनिवेश ही नहीं ब​ल्कि सही खरीदारों के लिए उचित मूल्य ​पर निजीकरण की भी संभावना है।

हमें वृहद आ​र्थिक और वित्तीय ​स्थिरता के लिए नीतियों की आवश्यकता है। इस ​स्थिरता का करदाताओं पर न्यूनतम बोझ आना चाहिए और इसका न्यूनतम वित्तीय असर होना चाहिए। उदाहरण के लिए आर्थिक मंदी से निपटने के लिए वास्तविक ब्याज दरों को अ​धिक समय तक कम नहीं रखना चाहिए। भारत में तो यह भी जरूरी नहीं कि मंदी की प्रकृति चक्रीय ही हो।

कई बार घरेलू उद्योगों का संरक्षण इस आधार पर उचित ठहराया जाता है कि हमें अर्थव्यवस्था में मौजूद सीमित इस्तेमाल अथवा इस्तेमाल रहित संसाधनों का इस्तेमाल करना चाहिए। बहरहाल, हमें वृहद आ​र्थिकी, विकास अर्थशास्त्र और अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र जैसे तीन विषयों से उचित सबक लेने की आवश्यकता है। यह नि​श्चित रूप से एक चुनौतीपूर्ण कार्य है लेकिन हमें वास्तविक दुनिया में दूसरे श्रेष्ठ हल को अपनाने का प्रयास करते समय बुनियादी सिद्धांत को ध्यान में रखना चाहिए। इसी तरह सीमाशुल्क तथा अन्य गतिरोधों में केवल इसलिए एक सीमा से अ​धिक इजाफा नहीं किया जाना चाहिए कि इस दौरान विश्व व्यापार संगठन के नियमों का उल्लंघन नहीं हो रहा।

यह सही है कि श्रमिक विरोधी श्रम कानूनों को हटाना महत्त्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ ही श्रमिक समर्थक कानूनों और नीतियों को बरकरार रखने की भी आवश्यकता है। उदाहरण के लिए संकट से जूझ रहे या गतिशील उद्योगों से कर्मचारियों को निकालना संभव होना चाहिए लेकिन इसके साथ ही अगर कोई कर्मचारी काम के दौरान घायल हो जाता है तो नियोक्ता द्वारा उसे तत्काल उचित हर्जाना भी मिलना चाहिए। अक्सर बाजार व्यवस्था पर्यावरण पर ध्यान नहीं देती। ठंड के दिनों में दिल्ली की हवा का स्तर इसका उदाहरण है। ऐसे में यह बात महत्त्वपूर्ण है कि सरकार कृ​षि, परिवहन और उद्योग जैसे क्षेत्रों में नकारात्मक बाह्यताओं को समाप्त करे।

नियमन में सुधार करना और कर तथा सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात को सही बनाना जरूरी है। प​श्चिम के क​थित पूंजीवादी देशों ने ऐसा ही किया है। ऐसा बिना कर नियमों को अनि​श्चित बनाए और बगैर किसी को प्रताड़ित किए होना चाहिए। जोर इस बात पर होना चाहिए कि कर रियायतों को कम किया जाए और तकनीक तथा लोक प्रशासन पर सार्थक व्यय के जरिये कर वंचना पर नजर रखी जा सके। ज्यादा कमाई करने वालों पर सम्मानजनक ढंग से संप​त्ति कर और विरासती कर लगाया जाना चाहिए। सरकारी धन को चुनाव में वोट पाने के लिए रेवड़ियां बांटने में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उनसे किसी का भला नहीं होता।

हालांकि विनिर्माण क्षेत्र में लाइसेंसिंग सन 1990 के दशक के आरंभ में ही समाप्त कर दी गई थी लेकिन अचल संपत्ति जैसे क्षेत्रों में यह अभी भी जारी है। इसे खत्म करने की जरूरत है। इसी प्रकार सरकार को निजी क्षेत्र को ऐसा बुनियादी ढांचा मुहैया कराने की आवश्यकता है जिसकी मदद से बड़े पैमाने पर भारत जैसे कम शहरीकृत क्षेत्र में अचल संप​त्ति का विकास हो सके। ये तमाम उपाय वृद्धि और रोजगार के वाहक हो सकते हैं। इससे घरों की कीमत में कमी आ सकती है जो प्रधानमंत्री आवास योजना जैसे कार्यक्रमों की जरूरत कम कर सकता है।

लब्बोलुआब यह कि वास्तव में हमेशा यह बात स्पष्ट नहीं होती कि एक बाजार अर्थव्यवस्था की ओर अस्पष्ट तरीके से आगे बढ़ रहे हैं। जबकि वास्तव में हमें एक सार्थक और स्थायी बाजार अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने की जरूरत है, न कि केवल बाजार अर्थव्यवस्था की। इस दिशा में अभी हमें लंबा सफर तय करना है।

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