म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों का किस तरह हुआ नरसंहार, पढ़ें दिल दहला देने वाली दास्तां
|6 घंटे तक वह म्यांमार में अपने घर के ऊपर वाले कमरे में छिपे हुए थे। बाहर गोलियों की तड़तड़ाहट और मारे जा रहे लोगों की चीखें गूंज रही थीं। नजदीक आ रही एक-एक पदचाप, हवा में गूंज रही एक-एक चीख के साथ 52 साल के बोडरु डुजा को लगता था कि मौत सिर पर मंडरा रही है और किसी भी वक्त दस्तक दे सकती है। उस सुबह वह सुरक्षित जगह की तलाश में भागकर अपने घर के ऊपरी कमरे में छिपे हुए थे। बाहर लोगों को पकड़ा जाता था। उनके हाथों को बांध दिया गया था, आंखों पर पट्टियां बंधी थी और छोटे-छोटे समूहों में उन्हें गोली मारने के लिए ले जाया जा रहा था। लोग अपनी जान की भीख मांग रहे थे लेकिन उन्हें गोलियों से भूना जा रहा था।
बांग्लादेश में एक शरणार्थी शिविर में रह रहे डूजा याद करते हैं कि उत्तर-पश्चिमी म्यांमार में वह एक शांत रविवार था, जब हिंसा की शुरुआत हुई। ऐसी हिंसा जो दक्षिण एशियाई देशों के सबसे खूनी नरसंहार के रूप में उभरी। सरकारी बलों ने अगस्त के आखिर में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ अभियान शुरू किया था। जबतक यह अभियान खत्म होता तबतक सड़कों पर बहुत खून बह चुका था, जगह-जगह मानव अंग बिखरे पड़े थे, खोपड़ियां बिखरी पड़ी थीं।
बाहर सन्नाटा होने के बाद जब डूजा अपने कमरे से बाहर निकले तो उन्हें ताज्जुब हुआ कि ऐसे माहौल में कोई कैसे बच पाता।
जिस कंपाउंड में वह पले-बढ़ें उसमें एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था। उनकी पत्नी, बेटी और 5 जवान बेटे कहीं नहीं दिखे। और जब वह पिछले दरवाजे से भागे तब उनके पैर फर्श पर पड़े एक अज्ञात लड़के के शव से टकराकर लड़खड़ा गए।
उनकी चींखें निकल गईं कि उन्होंने उनके साथ यह क्या कर दिया? उनके परिवार के साथ उन्होंने क्या किया?
डूजा का परिवार उस अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखता है, जिसे बौद्धों के प्रभाव वाले म्यांमार में लंबे समय से तमाम यातनाओं का सामना करना पड़ा है और बुनियादी अधिकारों से भी वंचित रहना पड़ता है। वे मांग नु नाम के एक गांव में रहते थे जहां 27 अगस्त को कम से कम 82 रोहिंग्यां मारे गए थे।
यह नरसंहार 2 दिन पहले सुरक्षा बलों पर रोहिंग्या विद्रोहियों के हमले के बाद सुरक्षाबलों के बदले की कार्रवाई का हिस्सा था। 2 दिन पहले रोहिंग्या विद्रोहियों ने रखाइन प्रांत में सुरक्षाबलों की 30 चौकियों पर हमला किया था, जिनमें 14 लोग मारे गए थे।
सुरक्षाबलों पर रोहिंग्या विद्रोहियों के हमले के बाद सुरक्षाबलों ने रोहिंग्या समुदाय के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसक अभियान शुरू किया। रोहिंग्याओं के सैकड़ों गांवों को जला दिया गया और साढ़े 6 लाख शरणार्थियों को बांग्लादेश भागने को विवश होना पड़ा। सहायता समूह डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स का अनुमान है कि रोहिंग्या मुस्लिमों के सफाये के लिए चलाए गए सुरक्षाबलों के अभियान के पहले ही महीने में करीब 6,700 रोहिंग्या नागरिक मारे गए थे। मानवाधिकार समूहों के मुताबिक बड़े पैमाने पर 3 नरसंहार हुए।
रखाइन में पत्रकारों को जाने की छूट नहीं है। न्यूज एजेंसी एपी ने म्यांमार की सेना से रखाइन का दौरा करने के लिए अनुरोध किया था लेकिन सेना की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला।
मांग नु को सुरक्षित समझा जाता था। डूजा और उनके भाई जाहिद हुसैन गांव के सबसे रईस शख्स थे। उनका दोमंजिला महलनुमा मकान था। करीब 50 साल पहले बना वह मकान आस-पास के इलाकों में अपनी तीन फीट मोटी दीवार की वजह से मशहूर था। कई को लगता था कि उस घर की दीवारें बुलेटप्रूफ हैं। दोनों भाई गायों और चावल का व्यापार करते थे और एक ईंट-भट्ठा को चलाते थे। दोनों भाई पढ़े लिखे और इलाके में लोकप्रिय थे। डूजा 12 सालों तक गांव के प्रशासनिक मुखिया रह चुके थे। हिंसा के दौरान तमाम लोगों को लगता था कि डूजा और उनके कंपाउंड को नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा।
एक साल पहले जब विद्रोहियों ने सुरक्षाबलों पर अपने पहले हमले को अंजाम दिया था तो सरकार ने विद्रोहियों को दबाने के लिए कई कदम उठाए थे। इस्लामी स्कूलों को बंद कर दिया गया था, कर्फ्यू लगा दिया गया था और अधिकारियों ने चारदीवारियों को गिराने का आदेश दिया था ताकि सुरक्षाबल किसी प्राइवेट कंपाउंड के भीतर देख सकें।
इन सबके बाद भी करीब 2,000 की आबादा वाला मांग नु गांव जो मोनू पारा नाम से भी जाना जाता है, शांतिपूर्ण बना हुआ था। डूजा परिवार गांव ही नहीं इलाके के सबसे अमीर लोगों में शुमार थे। उनके पास दर्जनों गायें और भैंस थीं और कई एकड़ खेत था। लेकिन जल्द ही यह सब खत्म हो गया।
25 अगस्त को आधी रात के कुछ ही घंटों बाद मांग नु के लोग गोलियों की तड़तड़हाट से जाग गए। गांव के उत्तर में एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर रोहिंग्या विद्रोहियों ने बॉर्डर गार्ड पुलिस के पोस्ट पर अचानक हमला बोल दिया था। सुबह होने तक दोनों तरफ से गोलियां चलती रहीं। सरकार के मुताबिक 2 अफसर और कम से कम 6 हमलावरों की मौत हुई।
सुरक्षाबलों ने इस हमले के बाद स्थानीय रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। मांग नु के नजदीकी गांव हपांग ताव पिन के रहने वाले स्थानीय जिला प्रशासक मोहम्मद अरोफ के 15 साल के बेटे को सेना ने मार डाला। अरोफ के बेटे को सेना धान के खेत से उठा ले गई और उसे तीन अन्य किशोरों के साथ पेड़ से लटकाकर मार डाला गया।
सुरक्षाबलों की तरफ से इस तरह की और कार्रवाइयों के डर से हपांग के ज्यादातर रोहिंग्या मुस्लिम अपने घरों से भाग गए और मांग नु में अपने दोस्तों व रिश्तेदारों के यहां यह सोचकर शरण ली कि यह गांव सुरक्षित है।
27 अगस्त को मांग नु गांव एक बार फिर गोलियों की तड़तड़ाहट से थर्रा उठा। इस बार सिर्फ सेना की तरफ से फायरिंग हो रही थी।
सुबह करीब 9 बजे सेना के कई ट्रक गांव के मेन रोड पर पार्क थे और सेना के जवान हवा में ताबड़तोड़ फायरिंग कर रहे थे। सेना के जवान अब घरों में घुसने लगे। एक चश्मदीद ने बताया कि किस तरह 18 साल के मोहम्मदुल हसन नाम के युवक को जवानों ने बेरहमी से मारा। मोहम्मदुल जवानों से बचने के लिए बुर्का पहनकर महिलाओं के बीच छिप गया। लेकिन जवानों को इसकी जानकारी मिल गई। गुस्साए जवानों ने मोहम्मदुल हसन और उसके 2 भाइयों को खींचकर घर से बाहर निकाला और उन्हें लातों से तब तक मारते रहे जब तक कि हसम की बाईं आंख से खून नहीं बहने लगा।
तीनों भाइयों को जवानों ने नंगा करके बांध दिया था। इस दौरान जवान महिलाओं के कपड़े फाड़ रहे थे और कीमती सामानों को जब्त कर रहे थे। इसके बाद सेना ने बंदूक की नोक पर उन लोगों का डूजा के कंपाउंड की तरफ नंगा मार्च कराया।
डूजा ने लोगों को कभी भी इतना आतंकित नहीं देखा था। उनकी पत्नी हबीबा ने पूछा, ‘क्या हुआ? यह क्या हो रहा है?’ तब तक सेना के दर्जनों जवान डूजा के कंपाउंड में आ धमके। डूजा के घर के लोगों ने मुख्य दरवाजा बंद कर दिया और घर के ऊपरी बॉलकनी में छिप गए। उस समय डोजा के घर में परिवार के अलावा कई दूसरे लोग भी छिपे हुए थे।
थोड़ी देर में जवानों ने घर का दरवाजा तोड़ दिया और घर के अंदर घुस गए। महिलाओं और पुरुषों को घसीटकर बाहर लाया गया और उन्हें अलग-अलग कर दिया। ज्यादा उम्र की महिलाओं को अपने घुटनों पर खड़े होने का आदेश दिया। इस दौरान जवानों ने उनके सिर ढंकने वाले कपड़ो को फाड़ दिया। जवानों ने सबसे पहले उनके मोबाइल फोनों को मांगा और बाद में उनके सोने के गहनों को छीन लिया।
करीब 20 से 25 महिलाएं, जिनमें से ज्यादातर जवान और आकर्षक थीं, उन्हें दूर ले जाया गया। वे महिलाएं फिर कभी नहीं दिखीं।
सैनिकों ने पुरुषों के हाथों को पीछे से बांध दिया और जमीन पर लेटने का आदेश दिया। पुरुषों को जूतों और राइफलों के बट से बेरहमी से मारा गया।
डूजा बच गए थे और ऊपरी कमरे में छिपे हुए थे। वहां से खिड़की की दराज से उन्होंने बाहर का दिल दहलानेवाला पूरा दृश्य देखा। डूजा के भाई के गर्दन में एक सैनिक ने चाकू घोंप दिया। जब उनके 2 बेटे भागने की कोशिश कर रहे थे तभी सैनिकों ने उन्हें गोलियों से भून दिया।
डूजा रेंगते हुए स्टोर रूम में एक लकड़ी के कंटेनर के पीछे छिप गए। बाहर से चींखें आ रहीं थीं।
दोपहर में सैनिकों ने पुरुषों और किशोर लड़कों को छोटे-छोटे समूहों में बांटकर अलग कर दिया और पास के जंगल के नजदीक सभी को मार डाला। सैनिकों ने कई शवों को जमीन में गाड़ दिया तो कई को ट्रकों में लादकर कहीं और फेंक दिया।
रोहिंग्या म्यांमार में दशकों से रह रहे हैं लेकिन उन्हें विदेशी घुसपैठिया ही समझा जाता है जो बांग्लादेश से आकर जमीनों पर कब्जा कर रहे हैं।
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