मिशन वर्ल्ड कप: कोच हरेंद्र सिंह का होगा अहम रोल
|”वी ड्रीम सेम ड्रीम। हम एक ही चीज सोचते हैं। हम ड्रीम टीम हैं। हम भारतीय टीम हैं। हम चैंपियन टीम हैं।”
“We dream the same dream. We think the same thing. We are the dream team. We are the Indian team. We are a champion team.”
एशिया कप जीतने पर बधाई। इस टूर्नमेंट में टीम अजेय रही और 13 साल बाद भारत ने यह खिताब अपने नाम किया। इसके साथ ही भारत ने वर्ल्ड कप में क्वॉलिफाइ किया… इस सबका श्रेय किसे जाता है?
रानी रामपाल: सबसे पहले तो, मेरी टीम के खिलाड़ियों को और कोचिंग स्टाफ को, जिन्होंने हमे सही गाइडेंस दिया। इसके बाद हॉकी इंडिया, स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया, भारत सरकार, जिन्होंने हमें इस स्तर पर परफॉर्म करने के लिए वे सभी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराईं। मेरे कोच बलदेव सिंह सर को स्पेशल थैंक्स क्योंकि मैं और टीम की मेरी कुछ साथी आज उन्हीं की बदौलत यहां बैठी हैं। यह सर (बलदेव) ही थे, जिन्होंने हमें हॉकी में आधार दिया, इसी के बाद हम खुद को और ग्रूम कर पाए और बाकी की चीजें सीख पाएं हैं।
विडियो: एशिया कप जीतकर लौटी भारतीय महिला टीम की खिलाड़ियों से चर्चा…
चार महीने पहले यही टीम वर्ल्ड हॉकी लीग में 8वें स्थान पर रही थी, जिसमें कुल 10 टीमों ने हिस्सा लिया था। इसके बाद से क्या बदल गया?
रानी: सबसे पहले, खिलाड़ियों का माइंडसेट बदला। अगर आप 2016 को देखें, तो हमने एशियन चैंपियंस ट्रोफी जीती। जोहानिसबर्ग में, हमारे पास बेहतर टीम थी, लेकिन हम अपनी क्षमता के अनुरूप वहां नहीं खेल पाए। हमारी टीम 10 टीमों के इस टूर्नमेंट में 8वें स्थान पर रहने वाली टीम नहीं थी। लेकिन यह सब खेल का हिस्सा होता है- कि जब आप कहीं जाते हो और वहां आशाओं पर खरे नहीं उतर पाते हो। कभी-कभी थोड़े से समय में आप, किसी टूर्नमेंट में ऐसा फिनिश करते हो, जिसकी आपसे उम्मीद ही नहीं होती। हम खुद 8वें स्थान पर रहकर खुद हैरान थे और हमारा कॉन्फिडेंस ही डगमगा गया था। लेकिन हम आगे बढ़े, हमने खुद को बताया कि हमने अभी वर्ल्ड कप के लिए क्वॉलिफाइ नहीं किया है और अब हमारे पास एक मौका है- यह है एशिया कप। हम खुद को साबित करने के लिए प्रतिबद्ध थे कि हम अच्छी टीम हैं और यहां हम खुद को साबित कर के ही रहेंगे। देश के लिए वर्ल्ड कप में क्वॉलिफाइ करना बहुत बड़ी बात हैऔर यही हमारा एकमात्र मोटिवेशन था। हम सभी ने यह तय किया- यह सिर्फ एशिया कप जीतने तक की बात नहीं है बल्कि हमें यहां से वर्ल्ड का टिकट भी मिलेगा। जब भी आपका लक्ष्य खास होता है, तो यह पूरी टीम का सांझा लक्ष्य बना जाता है और सभी एक ही माइंडसेट में जीते हैं।
सविता पूनिया: बिल्कुल, यही हमारा लक्ष्य था- वर्ल्ड में क्वॉलिफाइ करना और क्वॉलिफिकेशन सिर्फ गोल्ड मेडल के साथ ही हो सकता था। हम मेरिट के आधार पर वर्ल्ड कप में क्वॉलिफाइ करना चाहते थे, अब जब हम वर्ल्ड कप के लिए जाएंगे, तो हम एक अलग स्तर के विश्वास के साथ इस टूर्नमेंट में कदम रखेंगे। व्यक्तिगत रूप से और रानी की ओर से भी यह कह सकती हूं कि यह हमारा तीसरा एशिया कप था और हमारे पास पहले से ही ब्रॉन्ज और सिल्वर मेडल था, तो हमारा एक ही मिशन था कि हम गोल्ड जीतें। तो हम यही चर्चा करते थे कि जीत कभी भी एक या दो खिलाड़ियों के परफॉर्म करने से नहीं मिलती, बल्कि इसके लिए मिलकर सभी का सांझा प्रयास होना चाहिए।
जब आप जापान के लिए रवाना हुए, तो टीम से कोई बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं थीं, क्योंकि इस साल टीम का प्रदर्शन मिलाजुला रहा था और यह भी सच्चाई थी कि हम लोग बीते 13 साल से इस खिताब को नहीं जीते हैं। तो क्या टीम पर इस बात का कोई दबाव था?
सविता: कोई दबाव नहीं था, बल्कि जिम्मेदारी थी। जब हमारे कैम्प्स हो रहे थे, तब हमारे दिमाग में एक ही बात थी कि अगला टूर्नमेंट और सीरीज कौन सी है। जब हरेंद्र सर बतौर कोच आए, तो एशिया कप टारगेट था। यह भी सच्चाई है कि पिछले साल उन्होंने जूनियर पुरुष टीम को वर्ल्ड कप के लिए तैयार किया था और उनकी टीम ने यह खिताब अपने नाम किया था। इस फैक्ट के चलते हमारी टीम को अतिरिक्त प्रेरणा मिली। हमने यह सोचना शुरू कर दिया कि शायद इस बार यह हमारा मौका है। यह इस साल का हमारा आखिरी टूर्नमेंट था। इसके चलते हम सबने मिलकर यह तय किया कि हमें हर हाल में एशिया कप अपने नाम करना है और 2018 वर्ल्ड कप में क्वॉलिफाइ करना है इसके साथ-साथ 2018 में होने वाले तीन बड़े टूर्नमेंट के लिए खुद को तैयार करना है।
रानी: जब से हरेंद्र सर को अपॉइंटमेंट टीम में बतौर कोच हुई तो टीम का विश्वास बहुत बढ़ चुका था। उन्होंने पुरुष टीम को भी कामयाब बनाया था, तो एक टीम के रूप में हम भी ऐसा ही महसूस कर रहे थे और सर के अंडर इस कामयाबी को दोहराने के लिए तैयार थे। दूसरा, वही, जैसा मैंने पहले कहा था, कि टीम का माइंडसेट बदल चुका था, अब हमें वर्ल्ड के लिए क्वॉलिफाइ करना ही था, बस! किसी खिलाड़ी के लिए वर्ल्ड कप से बड़ा कोई टूर्नमेंट नहीं होता। हम इसे आसान रखना चाहते थे, लेकिन हम यहां गोल्ड जीतने के प्रति संकल्पबद्ध थे। नॉकआउट कभी भी आसान नहीं होते, और हमने मानसिक तौर पर खुद को मुश्किल क्वॉर्टर फाइनल, सेमी फाइनल और फाइनल के लिए भी तैयार किया था। हम आपस में बात करते थे, कि अगर खेल की शुरुआत में ही अगर हमने मोमेंटम गंवा दिया, तो कैसे वापसी करेगे। हम खेल को शूटआउट राउंड में ले जाने का प्रयास करते थे, हम शूटआउट राउंड में खुद को अच्छा मानते थे और इस स्थिति से निपटने के लिए हमारे पास बेहतरीन गोलकीपर थी।
नवजोत कौर: यहां कोई अतिरिक्त दबाव नहीं था। यहां सिर्फ वर्ल्ड कप में क्वॉलिफाइ करने की बात थी। हमने इस टूर्नमेंट में हर चुनौती से निपटने के लिए कड़ी तैयारी की थी। तीन महीने से हम सिर्फ एशिया कप पर ही फोकस कर रहे थे। एशिया कप में हमारी जीत हमारे फोकस और कड़ी ट्रेनिंग की साक्षी है।
अब आप एशिया कप जीत चुकी हो, अब इस टीम पर सबका ध्यान है। 2018 में 3 बड़े टूर्नमेंट आयोजित होंगे- वर्ल्ड कप, एशियन गेम्स और कॉमनवेल्थ खेल। तो क्या आप मानती हैं कि इन टूर्नमेंट में कामयाब होने के बाद आप लोग लाइमलाइट में आएंगी और जो अटेंशन आप लोगों को मिलनी चाहिए वह मिलेगी?
रानी: अगला साल हमारे लिए बहुत खास है। ये टूर्नमेंट हर 4 साल बाद होते हैं। स्वभाविक है कि हम अब एशिया कप जीत चुके हैं, इससे उम्मीदें बढ़ना लाजमी है। एक टीम के रूप में इन टूर्नमेंटों में हमें उसी विश्वास के साथ जाना होगा, जिसके साथ हमने एशिया कप में एंट्री की थी। हम सिर्फ एशिया कप से संतुष्ट नहीं हो सकते। अगर हम अपनी तुलना दुनिया की बेहतरीन टीमों के साथ करना चाहते हैं, तो हमें अभी और सुधार करना होगा। शारीरिक और मानसिक रूप से अभी इस पर बहुत काम करना है। अभी बहुत सा काम है, जो बाकी है। हर किसी को यह देखना चाहिए कि कड़ी ट्रेनिंग के बाद हमारा कॉन्फिडेंस किस स्तर तक बढ़ा है।
सविता, गोलकीपर ऑफ द टूर्नमेंट चुने जाने के लिए आपको बधाई। शूटआउट के बारे में हमें कुछ बताएं?
सविता: सच कहूं, बीते कुछ सालों से ऐसी स्थिति कई बार आई है। लेकिन जब भी ऐसा मौका आता है, तो यह गोलकीपर की उस दिन की और उस पल की परफॉर्मेंस पर निर्भर करता है। इसी के लिए आपको तैयार किया जाता है, ऐसे ही मौकों पर खुद को साबित करने के लिए आप अभ्यास करते हो। हम फाइनल में पहुंचे, भले ही हमने लीग स्टेज में चीन को हराया था लेकिन बावजूद इसके हम जानते थे कि चीन कितनी अच्छी टीम है। हम लो-स्कोरिंग फाइनल मैच में पेनल्टी शूटआउट के लिए हम तैयार थे। जब 1-1 के स्कोर पर घूटर बजा, तो इसने हमें ओलिंपिक क्वॉलिफायर्स की याद दिला दी, जब रानी ने एक गोल किया था और इसके बाद मैंने सडन डेथ में डिसीव गोल बचाया था। जब रविवार को सडन डेथ के दौरान रानी ने अपना पहला गोल दागा, तो मैंने उनसे कहा, ‘दीदी’ हमने ओलिंपिक क्वॉलिफाइयर्स में दी गई परफॉर्मेंस को आज फिर दोहराना है। शूटआउट में खिलाड़ी और गोलकीपर दोनों के पास कामयाब या नाकामयाब होने का एकसमान मौका होता है। तो यह सब इसी बात पर निर्भर करता है कि इस दौरान आप खुद को कितना शांत और कूल रख पाते हैं।
लेकिन क्या उस स्तर के दबाव के लिए ट्रेनिंग करना संभव है?
सविता: हर किसी को यह नैचरली यह प्रेशर सिचुएशन लगेगी लेकिन अपने दिल में मुझे अपने स्काइकर्स की क्षमता पर यकीन था। शूटआउट से पहले हमारे गोलकीपिंग कोच भारत भाई और हमारे कोच ने हमें कहा था कि हमारे स्ट्राइकर्स कम से कम तीन गोल करेंगे और मुझे कम से कम दो गोल बचाने होंगे। तो उसके बाद मुझे उनके विश्वास पर खरा उतरना था। इसका अर्थ था कि मुझे शांत रहना था और गोल पर फोकस करना था। अगर मैं नतीजों के बारे में बहुत ज्यादा सोचती तो मेरा ध्यान भटक सकता था।
भारत के इस सफर में आप कई बार केंद्रीय भूमिका में रहीं। इस टूर्नमेंट में आपने सिर्फ पांच गोल होने दिए।
सविता: अगर मैंने कम गोल होने दिए तो इसका श्रेय हमारी टीम के प्रदर्शन को भी जाता है (हंसते हुए)। हमारी रक्षापंक्ति, मिडफील्ड और स्ट्राइकर्स ने अच्छा प्रदर्शन किया। हमारे शुरुआती मैच से पहले हमने इस बात पर काफी ध्यान दिया कि किस तरह हम अधिक गोल करें और कम गोल होने दें। हमें खुशी है कि आखिर में ऐसा ही हुआ। निजी तौर पर देखूं तो इस टूर्नमेंट के दौरान अपना 150वां मैच खेलना काफी खास लम्हा रहा। मैं एक अनुभवी खिलाड़ी के तौर पर महसूस कर रही थी।
आपने शूटआउट से पहले कोच हरेंद्र सिंह के तीन गोल करने की बात का जिक्र किया क्योंकि उन्हें यकीन था कि सविता दो गोल बचा लेंगी…
रानी: उन्होंने हमें ऐसा कहा था। उन्होंने हमें संयम कायम रखने को कहा आखिर यह हमारी ट्रेनिंग का हिस्सा था। वह शूटआउट के जरिए हमसे उसी का इस्तेमाल करने को कह रहे थे। और सडन डेथ में यही हुआ। वह जूनियर वर्ल्ड कप के सेमीफाइनल में शूटआउट देख चुके थे तो हम उनकी बातों से काफी प्रेरित हुए। उनकी बातों में जोश और अनुभव था। यह काफी महत्वपूर्ण था।
सेमीफाइनल में आपका मुकाबला डिफेंडिंग चैंपियन जापान से था। उस गेम के लिए आप लोगों ने कैसी तैयारी की?
रानी: मेजबान टीम से मुकाबला कुछ अलग होता है। आप पर दबाव कुछ अधिक होता है पर ऐसा ही घरेलू टीम के साथ भी होता है। हमें उम्मीद थी कि जापान पर भी अधिक दबाव होगा। इस बार हम उसका फायदा उठाना चाहते थे। हमने इस मैच को एक अन्य मैच की तरह ही लिया। हम अपनी योजनानुसार खेले और इसका हमें लाभ हुआ। मुझे लगता है कि जैसा हमने सोचा था वैसा ही हुआ- वे काफी अधिक दबाव में आ गए और हमने अपनी नैसर्गिक आक्रामक हॉकी खेली। हमने मैच में बेहतर प्रदर्शन किया।
भारत में जब बात लोगों के ध्यान देने, पेमेंट्स, सुविधाओं और पहचान की आती है तो ज्यादातर खेलों की तुलना क्रिकेट से की जाती है। विमिंज़ हॉकी के लिए क्या खेल के भीतर भी डिविज़न है? जैसे की, मेन्स हॉकी की तुलना में विमिंज़ हॉकी पर लोगों का ध्यान कितना जाता है, इसे ही ले लीजिए?
रानी: काफी कुछ सुधरा है। सुविधाएं काफी बेहतर हुई हैं। हमें मेन्स टीम के समान ही सुविधाएं मिलती हैं। संपूर्ण रूप से अगर आप भारतीय खेल को देखते हैं, तो हां एक अंतर है। लेकिन हॉकी में उतना नहीं है। क्रिकेट सबसे लोकप्रिय खेल है और मेन्स और विमिंज़ टीमों में अंतर है। मैं केवल हॉकी के बारे में बोल सकती हूं। ज्यादा सहयोग या बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर या कुछ और के लिए कहने के बारे में सोचने से पहले हमारा फोकस इस बात पर होता है कि हमें जीतना है और अच्छे परिणाम देना है। कहीं न कहीं यह धारणा की बात होती है। पहले ऐसा माना जाता था कि लड़कियां लड़कों की तरह ज्यादा मेडल नहीं जीत सकती हैं। हम लड़कियों ने इस नेगेटिव माइन्ड-सेट को बदला है। रियो ओलिंपिक देखिए, वहां केवल पीवी सिंधु और साक्षी मलिक ने मेडल जीता। इससे अब लोगों में भरोसा जगा है कि भारतीय बेटियां भी मेडल जीत सकती हैं। क्रिकेट के साथ भी ऐसा ही है। इस साल विश्व कप में हमारी विमिंज़ टीम फाइनल में पहुंची और काफी कम अंतर से हारी। अब हमने एशिया कप जीता है। ऐसे नतीजों से आगे भी लोगों की मानसिकता बदलेगी।
खिलाड़ी अक्सर कहते हैं कि जब वे जीतते हैं तो (जो उन्होंने देश के लिए किया है) लोग काफी तारीफ करते हैं। लेकिन उन्हें वास्तविक सहयोग की जरूरत तब होती है जब वे अपने लिए संघर्ष कर रहे होते हैं। क्या आपको ऐसा अनुभव हुआ है?
सविता: जीवन के लिए और खेल में संघर्ष जरूरी है। संघर्ष के बिना मजा नहीं है। हमारा रोल यह है कि हम जितना जीत सकें, उतने गेम्स जीतें। उसके बाद जनता और मीडिया की प्रतिक्रिया आती है। भारत में, खिलाड़ी शुरूआत में संघर्ष करते हैं क्योंकि जमीनी स्तर पर सुविधाएं बेहतर नहीं हैं। लेकिन अब चीजें बदली हैं। हॉकी में, ऐस्ट्रोटर्फ सर्फेस का इस्तेमाल हो रहा है तो इससे अच्छे परिणाम की उम्मीद की जा सकती है। जितनी तेजी से विकास होगा, परिणाम उतनी जल्दी आने लगेंगे।
सविता, जब आप यंग थीं तो क्या किसी ने आपको हॉकी खेलने से रोका या हतोत्साहित किया था?
सविता: नहीं, क्योंकि पहले स्पोर्ट्स में करियर बनाने में मेरी उतनी रुचि नहीं थी। मेरे दादाजी चाहते थे कि मैं स्पोर्ट्स में अपना करियर बनाऊं। जब मैं नैशनल कैंप पहुंची तब मुझे अहसास हुआ कि देश के लिए खेलने का क्या मतलब होता है। उसी दिन से मैंने तय किया कि एक मुकाम हासिल करने के लिए मुझे कठिन परिश्रम करना है। हरियाणा से आने के कारण मैं उन परेशानियों को समझती हूं, लड़कियों को जिसका सामना करना पड़ता है। उन्हें शॉर्ट्स नहीं पहनने दिया जाता, घर से बाहर जाने या दूर कहीं की यात्रा पर जाने पर पाबंदी रहती है।
जब चक दे इंडिया फिल्म को दर्शकों ने बेहद प्यार दिया था। इस टीम की कहानी प्रेरणात्मक है। क्या आपको लगता है कि बॉलिवुड जब किसी खेल की कहानी को बयां करता है तो खेल काफी पॉपुलर होता है?
रानी: हकीकत और फिल्म में काफी अंतर होता है। चक दे इंडिया जैसी फिल्म को हम खिलाड़ी अलग तौर पर देखते हैं। जो भी स्क्रीन पर दिखाया जाता है, हकीकत में उसे करना काफी मुश्किल होता है। मूवी में हर चीज आसान लगती है। हमारा काम देश को ज्यादा से ज्यादा पदक दिलाना है। फिल्म-मेकर्स और ऐक्टर्स पर निर्भर करता है कि हमारी कहानी को चुनें और बायोपिक बनाएं। इससे लोगों के बीच जागरुकता फैलती है, असली हॉकी के बारे में जागरुकता।
आपने भारतीय हॉकी में बलदेव सिंह के योगदान की चर्चा की। आप, नवजोत और नवनीत उनकी शिष्या रही हैं। इसी तरह हैदराबाद में पुलेला गोपीचंद अकादमी है। क्या आपको दोनों के बीच कोई समानता नजर आती है.?
रानी: जिस तरह का सिस्टम बलदेव सर ने बनाया है, वह राष्ट्रीय टीम के लिए एक फीडर सिस्टम है। जहां भी वह जाते हैं, नए खिलाड़ी उभरते हैं। यही उनकी हॉकी के लिए डेडिकेशन है। अगर आप तुलना करते हैं, तो बलदेव सर का योगदान काफी ज्यादा है। बैडमिंटन एक प्लेयर का खेल है और जब आप किसी एक खिलाड़ी पर फोकस करते हैं तो आपका फोकस ज्यादा व्यवस्थित हो सकता है लेकिन जब बात पूरी टीम को ट्रेनिंग देने और सुधार की होती है तो यह काफी मुश्किल होता है। आपको 30 खिलाड़ियों के साथ काम करना होता है और 18 को चुनना होता है। बलदेव सर ने स्कूलों में काम करने से शुरुआत की, जहां लड़कियों को सिर से दुपट्टा हटाने की अनुमति नहीं होती थी, शॉर्ट्स पहनने की बात तो बहुत दूर है। बलदेव सर का सबसे बड़ा योगदान तो यही है कि उन्होंने वहां हॉकी शुरू किया, जहां इसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। मेरे माता-पिता ने भी यह नहीं सोचा था कि मैं कभी भारत के लिए खेलूंगी। बलदेव सर के लिए काफी मुश्किल था, वहां शुरुआत करना जहां सुविधाएं नहीं थीं लेकिन उन्होंने किया। देश ऐसे पथ-प्रदर्शक के लिए हमेशा ऋणी रहेगा।
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