जाट बेल्ट में खेती भी ‘मूंछ’ का सवाल!
| संदीप राय/टीएनएन, मेरठ प्रतिष्ठा की खेती! क्या है वजह यह आलसीपन है! साहस दिखाने का मिला फायदा
इस समय पूरे प्रदेश के किसान बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि की मार झेल रहे हैं। उनकी रबी की फसल (गेहूं, सरसों) चौपट हो चुकी है। इस वजह से कई किसान खुदकुशी कर चुके हैं और कई की सदमे से मौत हो गई है। ऐसे में उनके लिए पारंपरिक खेती की जगह बागवानी या फूलों की खेती ज्यादा सुरक्षित और लाभदायक विकल्प के तौर पर सामने आ सकती है। लेकिन, जाट बेल्ट में ज्यादातर किसान इसे अपनाना नहीं चाहते। पारंपरिक फसलों को वे अपने सम्मान से जोड़कर देखते हैं। उन्हें लग रहा है कि खेत में फूल उगाने से उनकी ‘मूंछ’ कट जाएगी। क्योंकि, उनकी नजर में सब्जी और फूल की खेती छोटी जाति के किसान करते हैं।
दरअसल, जाट बेल्ट में खेती और फसलें किसानों के लिए रोजी-रोटी के साधन से कहीं ज्यादा प्रतिष्ठा से जुड़ी हुई है। यही वजह है कि फसल को बदलने की बात आते ही मामला उनकी ‘मूंछों’ का हो जाता है। वहीं, एक तथ्य यह भी है कि इस एरिया में फूलों की डिमांड बहुत है। इसे उगाने में फायदा भी ज्यादा है। लेकिन, गेहूं और गन्ने जैसी पारंपरिक फसलें लगाते चले आए किसान इन्हें छोड़ना नहीं चाहते, फिर भले ही उन्हें कितना भी नुकसान क्यों न उठाना पड़े।
इसकी वजह इस क्षेत्र में मौजूद सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का कनेक्शन है। आमतौर पर सब्जियों और फूलों की खेती निचली जाति के किसान करते रहे हैं। मेरठ शहर से 30 किलोमीटर दूर नायडू गांव के किसान विकास नायडू का कहना है कि अगर हमने उनकी (निचली जाति के किसानों) तरह खेती करना शुरू कर दिया, तो यह हमारे लिए बड़े शर्म की बात होगी। मवाना खुर्द गांव के प्रधान अजय त्यागी नायडू की बातों से सहमत हैं। उनका कहना है कि आमतौर पर सब्जी और फूल उगाने वाले लोग लेबर क्लास के हैं। वे किसान नहीं हैं। उनका कहना है कि इस बार बारिश से हमारी फसलों को नुकसान जरूर हुआ है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम ऐसी फसलों की खेती करने लग जाएं, जो हमारे स्टेटस को सूट नहीं करता हो।
जिला बागवानी अधिकारी अरुण कुमार इसे अलग ही नजरिए से देखते हैं। उनका कहना है कि इसमें सम्मान की कोई बात नहीं है। जो लोग इसे ‘मूंछ’की लड़ाई बता रहे हैं, यह उनके आलसीपन को दिखाता है। अगर बड़े किसान वैकल्पिक खेती जैसे सब्जी और बागवानी नहीं करना चाहते हैं, तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कि इसमें बहुत मेहनत की जरूरत पड़ती है। हर रोज देखरेख की जरूरत होती है। वहीं, गन्ने या अन्य फसलों में उतनी ज्यादा देखरेख की जरूरत नहीं होती। इसके अलावा ये किसान बहुत लंबे समय से पारंपरिक खेती करते आ रहे हैं, तो यह उनके लिए सहज और सुविधाजनक लगने लगा है। वे इस कम्फर्ट जोन से बाहर निकलकर अतिरिक्त मेहनत नहीं करना चाहते। यही वजह है कि वे इस तरह के बहाने बना रहे हैं।
फूलों का बिजनेस करने वाले राकेश प्रधान का कहना है कि जब मैंने पारंपरिक खेती छोड़कर बागवानी शुरू की थी, तब अन्य किसानों ने मेरा मजाक उड़ाया था। लेकिन मैं लगा रहा और मुझे खुशी है कि मैं इसमें कामयाब भी हुआ। फूलों का पेमेंट मुझे कैश में मिल जाता है। पेमेंट कभी लेट भी नहीं होता। जबकि, अन्य फसलों का भुगतान लेट से ही मिलता था। यही नहीं, मौसम की मार से उनमें भारी नुकसान भी होता था। भारतीय किसान यूनियन के नरेश टिकैत कहते हैं कि यह मुद्दा किसानों के सम्मान से नहीं जुड़ा है। मुझे लगता है कि अगर सही गाइडेंस मिले, तो किसान वैकल्पिक खेती अपनाने के लिए तैयार हैं। किसानों की आलोचना करने वाले तो बहुत हैं, लेकिन उन्हें टेक्निकल सपोर्ट देने के लिए बहुत कम लोग आगे आते हैं।
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