चौंकिए नहीं, जींस तो बहुत पहले से है स्वदेशी
|बाबा रामदेव का ब्रैंड पतंजलि खास प्रॉडक्ट के तौर पर ‘स्वदेशी जींस’ लॉन्च करने वाला है, लेकिन आपको बता दें कि अगर जींस के इतिहास पर गौर करें तो यह प्रॉडक्ट तो बहुत पहले से ही देसी फ्लेवर का है। किसी के ब्लू जींस पहनने के बारे में टाइम्स ऑफ इंडिया में पहला जिक्र आश्चर्यजनक रूप से कलकता (अब कोलकाता) में एक चीनी व्यक्ति का आता है।
1910 में शहर में गर्मी के मौसम से जुड़ी गतिविधियों पर एक रिपोर्ट में यह जिक्र हुआ था। तब कलकत्ता के चीनी समुदाय में हॉकी मैच काफी लोकप्रिय थे। रिपोर्ट में कहा गया था कि यह आम सा दिखने वाला चीनी व्यक्ति ‘हॉकी का प्रशंसक है और किसी भी यादगार मुकाबले में उन्हें ब्लू जींस पहने हुए देखा जा सकता है।’
‘जिस ब्लू जींस का जिक्र इसमें हुआ था, वह संभवत: आज के ट्राउजर्स जैसी नहीं रही होगी, जो बड़े सलीके से स्टिच्ड होती हैं। उस वक्त ब्लू जींस का मतलब एक मजबूत कॉटन फैब्रिक से था, जो ‘कॉटन और ऊन या लिनेन का मिक्सचर होता था और अपने टिकाऊपन के लिए वह नाविकों में लोकप्रिय था।’ यह बात स्टीफन याफा ने अपनी किताब ‘कॉटन: द बायोग्रॉफी ऑफ अ रिवॉल्यूशनरी फाइबर’ में लिखी है।
फ्रेंच लोग नाविकों और उनके कपड़ों, दोनों को जेनोइस (Genois) कहा करते थे और बाद में इसे जींस (Jeans) कहा जाने लगा। टाइम्स ऑफ इंडिया की 1939 की एक रिपोर्ट में इसी फैब्रिक की बिक्री दिल्ली के पीस गुड्स बाजार में घटने की बात की गई थी।
डेनिम भी इसी तरह का रग्ड कॉटन फ्रैब्रिक था, जो मूल रूप से सिल्क और ऊन का ब्लेंड था, लेकिन फिर इसे कॉटन जैसा बनाया गया। जींस को सॉलिड ब्लू और नील से डाई किया जाता था, वहीं डेनिम को प्राय: नीले और सफेद धागों को मिलाकर तैयार किया जाता था। दोनों ही मोटे, लेकिन आराम देने लायक लचीले होते थे। समय के साथ दोनों का मेल हो गया और लेवी स्ट्रॉस जैसे टेलर्स के पास तैयार होने वाले ट्राउजर्स को जींस कहा जाने लगा। इस मटीरियल से ट्राउजर्स बनाने का जिक्र टाइम्स ऑफ इंडिया में 1950 से कुछ पहले की रिपोर्ट्स में आया, जिनमें हॉलीवुड की फिल्मों का जिक्र था।
हालांकि, कामगारों के इस साधारण से फैब्रिक का इतिहास इसलिए फिर याद करने लायक हो गया है कि योग गुरु बाबा रामदेव ने ऐलान किया है कि उनका पतंजलि ब्रांड ‘स्वदेशी’ जींस बनाएगा। हालांकि ‘स्वदेशी’ का मामला इस पर फिट नहीं बैठता। कई खाप पंचायतों ने तो महिलाओं के जींस पहनने पर रोक का फरमान सुनाया था। हो सकता है कि ब्लू जींस में उन्हें अश्लीलता का खतरा नजर आया हो।
हालांकि, जैसा कि TOI की रिपोर्ट से लगता है कि जींस का इतिहास इसके टिकाऊपन और कामकाज में दिक्कत न देने वाले कपड़े का भी रहा है और संभवत: इसी बात से पतंजलि ने इस पर नजर टिकाई हो। दिल्ली, मुंबई सहित तमाम शहरों में कामकाजी वर्ग जींस पहने नजर आता है और तमाम लोगों के शरीर पर शायद ही किसी बड़े ब्रांड का जींस रहता हो।
कभी-कभी तो टेक्निकली उस फैब्रिक को जींस कहा भी नहीं जा सकता। पहले मुंबई में युवा वीकेंड्स पर या खास मौकों पर जींस पहना करते थे, लेकिन अब तो यह डेली वियर है। वे स्पेशल जींस अब भी हैं, लेकिन उन्हें फेडिंग का अहसास देने वाली इमेज प्रिंटिंग या दूसरे तरीकों से ट्रेंडी बनाने की कोशिश की गई है।
डैनियल मिलर और सोफी वुडवर्ड की 2012 में एक किताब ‘इन ब्लू जींस: द आर्ट ऑफ ऑर्डिनरी’ आई, जिसमें लोगों की जिंदगी में जींस के जगह बनाने की एंथ्रोपॉलोजिकल स्टडी की गई थी। उनका कहना है कि इंडिया इस मामले में दुनिया से पीछे है और ‘दुनियाभर में हर 10 में से छह कस्टमर्स कहते हैं कि वे डेनिम पहनना पसंद करते हैं और ऐसा कहने वालों का पर्सेंटेज सबसे ज्यादा ब्राजील (72%) है। वहीं इंडिया में केवल 27 पर्सेंट कहते हैं कि उन्हें जींस पहनना पसंद है।’
मिलर और वुडवर्ड ने ग्लोबल डेनिम प्रॉजेक्ट भी शुरू किया ताकि पता किया जा सके कि दुनियाभर में जींस के ट्रेंड से विभिन्न संस्कृतियों की कौन सी खासियत सामने आती है। मिलर ने इंडिया में केरल के कन्नूर जैसी जगहों में फील्ड वर्क किया, जिससे जींस से जुड़ी शुरुआती रुझान और इसकी सीमाओं का पता चला। उन्होंने पाया कि स्टूडेंट्स डिस्ट्रेस्ड जींस पहना करे थे, फिर प्लेन जींस पर आते थे और एजुकेशन पूरी करने के बाद 40 की उम्र तक आते-आते जींस से किनारा कर लेते थे। मिलर ने लिखा है कि ‘पत्नियां और मांएं बार-बार शिकायत करती थीं कि पानी से भींगकर भारी हुई जींस को धोने से उनकी पीठ में दर्द होने लगता है।’
क्लेयर एम विलकिंसन-वेबर ने अपने पेपर ‘डाइवर्टिंग डेनिम: स्क्रीनिंग जींस इन बॉलीवुड’ लिखा है कि 1970 के दशक में ‘परवीन बॉबी और जीनत अमन जैसी लीक से हटकर कदम उठाने वाली नायिकाओं ने शॉर्ट ब्लाउज के साथ जींस पहनकर नई शुरुआत की थी।’ हालांकि ऐसे संकेत भी थे कि जब कुर्ता या कमीज के साथ पहना जाए तो जींस का भारतीयकरण हो सकता है। यह बात पूरी तरह से फिल्मी चित्रण में सामने आई क्वीन (2012) के साथ, जिसकी मुख्य भूमिका कंगना रनौत की थी। वेबर ने लिखा है कि शहरी और कामकाजी जीवन की जरूरतों ने लड़कियों की पसंद में जींस को शामिल कर दिया।
वेबर ने यह भी लिखा है कि किस तरह मैन्युफैक्चरर्स ने मार्केटप्लेस में तमाम देसी ब्रांड्स झोंककर या ग्लोबल ब्रांड्स की लोकल फ्रेंचाइजी के जरिए जींस का ऐसा भारतीयकरण किया कि इसका फॉरेन स्टेटस किसी को याद नहीं रहा। वेबर लिखती हैं कि अब अपने विदेशी मूल और विदेशी छवि के बावजूद जींस रेग्युलर वर्किंग इंडियन वियर बन चुका है। पतंजलि की ‘स्वदेशी’ जींस का लेबल अटपटा लग सकता है, लेकिन यह उस बात पर मुहर भी है, जो हमारी जिंदगियों में पहले ही हो चुकी है।
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