अस्थिरता एवं अनिश्चितता से और बेहाल अगला साल

जब वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी के मुहाने पर हो तब भारत के लिए मुश्किलें बढ़ना भी तय है। मौजूदा हालात में आर्थिक मोर्चे पर 2023 के 2022 से भी खराब रहने की आशंका जता रहे हैं शंकर आचार्य 

वैश्विक अर्थव्यवस्था ए‍वं राजव्यवस्था के लिए 2022 एक बुरा साल साबित हुआ। साल की शुरुआत कोविड महामारी से हुए नुकसान की भरपाई से जुड़ी उम्मीदों के साथ हुई। इसके पीछे मजबूत आधार भी था, क्योंकि अधिकांश बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने 2020 के स्याह दौर को पीछे छोड़ते हुए 2021 में दमदार वापसी के साथ वृद्धि दर्ज की। इसके चलते बाजार विनिमय दरों के आधार पर वैश्विक आर्थिक वृद्धि 5.8 प्रतिशत रही। वर्ष 2022 की शुरुआत में अमेरिका और कुछ यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फीति में जबरदस्त तेजी आई। परिणामस्वरूप कई वर्षों की निरंतर मौद्रिक नरमी के बाद मौद्रिक नीतियों में समकालिक रूप से सख्ती का सिलसिला शुरू हो गया।

वहीं, फरवरी के अंत में यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद मुद्रास्फीति (और सहगामी मौद्रिक सख्ती) में और तेजी आती गई। इससे ऊर्जा, खाद्य उत्पादों और उर्वरक की कीमतें आसमान पर पहुंच गईं। आपूर्ति के मोर्चे पर जबरदस्त गतिरोध उत्पन्न हुए। हालात बिगड़ने की बची-खुची कसर अमेरिका की अगुआई में पश्चिमी देशों के संगठनों द्वारा रूस पर लगाए गए अप्रत्याशित आर्थिक प्रतिबंधों से पूरी हो गई।

कुछ हफ्तों बाद चीन में ओमीक्रोन की दस्तक से कई बड़े शहरों में लॉकडाउन लगाने की नौबत आ गई, जिससे आपूर्ति श्रृंखला और दबाव में आती गई। ऊंची ब्याज दरों और युद्ध को लेकर बढ़ी अनिश्चितता की स्थिति में ‘सुरक्षित पनाहगाह’ की तलाश में पूंजी अमेरिका पलायन करने लगी। इससे डॉलर की हैसियत में जबरदस्त इजाफा होता गया। इस वजह से तमाम विकासशील देशों में बाह्य वित्तीय समस्याओं और कर्ज संकट गहराने की आशंकाएं बढ़ने लगीं।

आईएमएफ के विश्व आर्थिक परिदृश्य (डब्ल्यूईओ) के अक्टूबर अनुमान के अनुसार इन तमाम झटकों के परिणामस्वरूप वैश्विक आर्थिक वृद्धि 3 प्रतिशत से नीचे चली गई। अर्थशास्त्र से इतर यूरोप में 1945 के बाद जमीन को लेकर सबसे गंभीर लड़ाई छिड़ गई, जिसने वैश्विक भू-राजनीति के समीकरणों को बुरी तरह प्रभावित किया, जिसमें देशों पर इसी बात का दबाव डाला गया कि वे पश्चिमी गठबंधन और रूस (और कुछ हिचक के साथ)- चीन के बीच किसी एक खेमे का चयन करें या जितना संभव हो सके, उतना तटस्थ रहें।

जलवायु परिवर्तन, परमाणु निःशस्त्रीकरण, अंतरराष्ट्रीय व्यापार, वैश्विक पेट्रोलियम बाजार, गहराता कर्ज संकट और पारदेशीय डिजिटल डेटा प्रवाह जैसे वैश्विक सहयोग के तमाम आवश्यक मुद्दे इस स्थिति की भेंट चढ़ गए। बहुपक्षीयता को बहुत तगड़ा झटका लगा। ऐसे परिदृश्य के उलट 2023 से हमारी क्या अपेक्षाएं हो सकती हैं। यहां उनकी कुछ थाह लेते हैं।

वैश्विक

दुनिया भर में मौद्रिक नीति को लेकर जारी व्यापक सख्ती को देखते हुए मुद्रास्फीति के मोर्चे पर कुछ सुधार के संकेत दिख सकते हैं। हालांकि तेल, गैस और खाद्य उत्पादों के पहले से ही आसमान चढ़े दाम विश्व के अधिकांश हिस्सों में उपभोक्ताओं की परेशानी बढ़ाते रहेंगे। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि यूक्रेन युद्ध कितना लंबा खिंचेगा। अनुभवी विश्लेषकों का यही अनुमान है कि छिटपुट संघर्ष जारी रहेगा और सर्दियों की समाप्ति के बाद सैन्य गतिविधियों में एकाएक तेजी आ सकती है। एक स्तर पर कुछ असहज संघर्षविराम हो सकता है, लेकिन स्थायी शांति के आसार नहीं। ऐसे में आर्थिक गतिविधियों (गंभीर आर्थिक पुनर्निर्माण सहित) के पुनः गति पकड़ने की संभावनाएं अनिश्चित बनी हुई हैं।

विश्व के अधिकांश भागों में भले ही कोविड महामारी पर काबू पा लिया गया है, लेकिन चीन की ‘शून्य कोविड’ नीति के हालिया परित्याग से उसकी 140 करोड़ की आबादी में संक्रमण और मौतों की आशंका है, जिसका असर दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी फैल सकता है, जहां सामान्य आवागमन और संचार पुनः स्थापित हुआ है। महामारी विशेषज्ञों ने यह भी चेताया है कि भविष्य में इस संक्रमण के ओमीक्रोन से भी भयावह प्रतिरूप सामने आ सकते हैं, जो मौजूदा प्रतिरक्षा कवच को भेदकर स्वास्थ्य एवं आर्थिक गतिविधियों को गंभीर क्षति पहुंचाने में सक्षम होंगे।

अमेरिका, यूरोप और चीन विश्व की तीन सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं, जिनकी 100 लाख करोड़ डॉलर की वैश्विक अर्थव्यवस्था में 60 प्रतिशत हिस्सेदारी है। यूरोप पहले से मंदी की जकड़न में है, जिसमें संभव है कि 2023 के दौरान कोई आर्थिक वृद्धि न दिखे। खासतौर से जर्मनी और ब्रिटेन की बढ़ती कमजोरियों से यह आशंका मजबूत हो रही है। अधिकांश विश्लेषकों का अनुमान है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी 2023 की पहली छमाही में मंदी के दौर में दाखिल हो जाएगी। चीन भी 2022 में जबरदस्त गिरावट के साथ 3 से 4 प्रतिशत वृद्धि के दौर में फिसल गया, जिसकी स्थिति में सुधार के कम ही आसार हैं, लेकिन यदि उसमें तनिक भी सुधार हुआ तो वैश्विक वृद्धि के लिए अंतर पैदा करने का काम करेगा।

ऐसे में डब्ल्यूईओ के अक्टूबर अनुमान को लेकर कोई हैरानी नहीं, जिसके अनुसार वैश्विक वृद्धि 2.1 प्रतिशत के दायरे में रहेगी और उसमें भी फिसलन की आशंका का जोखिम अधिक है। वास्तव में, आईएमएफ मुखिया ने कुछ दिन पहले ही कहा है कि जनवरी के नए आकलन में वृद्धि का अनुमान घटाया जाएगा। वहीं, विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख का अनुमान है कि वैश्विक व्यापार में 1 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि नहीं होगी।

तमाम ‘ज्ञात-अज्ञात’ के बीच विशाल वैश्विक वित्तीय बाजारों में बड़े नकारात्मक झटके का जोखिम कायम है। दुनिया में लंबे समय तक नरम मौद्रिक नीतियों का दौर रहा है, जिसमें ऊंचे प्रतिफल की तलाश से जुड़े जोखिम सहबद्ध रहे हैं, जहां अब बड़े पूंजीगत बाजारों में वित्तीय तंगी की स्थिति से सामना हो रहा है। यदि ऐसा कोई झटका लगता है तो हमें कुछ गूढ़ डेरिवेटिव इंस्ट्रुमेंट्स को लेकर नए पहलुओं के साथ ताल मिलाना सीखना पड़ सकता है।

ताइवान को लेकर चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग का मोह तो बना रहेगा, लेकिन शायद ही चीन अगले साल ताइवान पर हमले का जोखिम उठाए। हालांकि, भारत-चीन सीमा पर ऐसा कोई आश्वासन नहीं दिया जा सकता कि चीन दुस्साहस दिखाने से बाज आएगा, जैसा उसने 2020 में दिखाया था। विश्व में करीब 10 करोड़ शरणार्थियों की संख्या तो यकीनन बढ़ेगी और उसके साथ ही उनके दुख-दर्द, दुश्वारियों और मौतों के मामले भी बढ़ेंगे। चूंकि दुनिया भर की सरकारें जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों के समय रहते आवश्यक समाधान तलाशने में पीछे रह जाएंगी तो निश्चित रूप से जलवायु संबंधित जोखिम भी बढ़ते जाएंगे। वहीं, अफ्रीका में विस्मृत कर दिए युद्ध और सूखे के कारण न केवल लोगों की जान पर आफत बढ़ेगी, बल्कि गरीबी और भुखमरी भी अपना फन और फैलाएंगी।

भारत

जब वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी के मुहाने पर हो तब भारत के लिए आर्थिक वृद्धि की ऊंची दर को बरकरार रखना एक चुनौती होगी। वैश्विक अर्थव्यवस्था की लचर स्थिति, भारी सरकारी ऋण और राजकोषीय घाटा, निर्यात में हालिया गिरावट और कई वर्षों से बरकरार कम रोजगार दर से उपभोग पर आघात जैसे पहलुओं को देखते हुए मेरा अनुमान है कि अगले वर्ष आर्थिक वृद्धि की दर 5 से 6 प्रतिशत के बीच रहेगी। इसके बावजूद यह दर ‘दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था’ के हमारे तमगे को कायम रहेगी। वृद्धि के इससे कम रहने पर हम यह दर्जा इंडोनेशिया और यहां तक कि चीन के हाथों गंवा सकते हैं। बहरहाल, किसी भी सूरत में रोजगार की हमारी मौजूदा खस्ताहाल स्थिति में व्यापक सुधार की गुंजाइश बहुत ही कम है।

वर्ष 2023 में भी हमारी बाह्य वित्तपोषण की स्थिति दबाव में बनी रहेगी। विशेषकर तब यदि निर्यात में गिरावट का सिलसिला इसी प्रकार बना रहा।
अगले साल कई बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं और फिर अगले आम चुनाव भी कुछ महीने दूर रह जाएंगे तो इस दौरान राजनीतिक तपिश भी तेज रहेगी, जहां संभवतः भाजपा कमजोर पड़ती कांग्रेस पर अपना दबदबा बनाए रखेगी।

दुनिया भर में भू-राजनीतिक तल्खियों और तनावों के बीच भारत की सरकार के समक्ष जी-20 की अपनी अध्यक्षता को सफलता दिलाने की चुनौती होगी, जिसमें वैश्विक आर्थिक मुद्दों विशेषकर जी-20 के विकासशील सदस्य देशों के लिए महत्त्वपूर्ण मसलों पर कुछ प्रगति मायने रखेगी। कुल मिलाकर, आशंका यही है कि 2023 दुनिया के लिए 2022 से भी बदतर होगा।

(लेखक इक्रियर में मानद प्राध्यापक और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में विचार निजी हैं)

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