विपक्षी एकता के नाम पर इकट्ठा हुए जमावड़े में विश्वास नहीं दिखताः योगेंद्र यादव

नई दिल्ली
राजनीतिक विश्लेषक और स्वराज अभियान के नेता योगेंद्र यादव का कहना है कि देश को सिर्फ विरोध की नहीं विश्वास की जरूरत है। उनका मानना है कि बेंगलुरु में विपक्षी एकता के नाम पर साथ दिखे जमावड़े से न तो वह विश्वास पैदा होता है न ही विकल्प की संभावना दिखाई देती है। उन्होंने हमारी संवाददाता पूनम पाण्डे से बातचीत की…

सवाल- विपक्ष अगर एक हो गया तो क्या होगी देश की तस्वीर?
अगर सीएसडीएस सर्व को मानें तो आज मोदी सरकार के खिलाफ ऐंटी इनकम्बेंसी का बुखार उतना ही है जितना मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ मई 2013 में था। देश को मोदी सरकार के विकल्प की सख्त जरूरत है। लेकिन विकल्प के लिए पहली जरूरत है एक नई दृष्टि। एक नया सपना। बेंगलुरु में एकत्र हुए जमावड़े से और कुछ भी बनता हो देश को नई उम्मीद नहीं बंधती।

अगर संयुक्त विपक्ष नहीं तो फिर क्या हो सकता है विकल्प?

जरूरत है एक नए संगठन की, जो कि अमित शाह की चुनावी मशीन का मुकाबला कर सके। पिछले कई विधानसभा चुनाव में बार-बार यह साबित हुआ है कि अलोकप्रियता के बावजूद बीजेपी अपनी मशीन के दम कर अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन कर जाती है। इस मशीन का मतलब सिर्फ पैसा और बाहुबल ही नहीं है इसमें बीजेपी और संघ के संगठन की बड़ी भूमिका है। इसका मुकाबला कौन करेगा? शायद तेलगू देशम और डीएमके के पास वैसा संगठन है लेकिन और किसके पास है। एक साथ जुड़ जाने से संगठन कैसे मजबूत हो जाएगा।

तो क्या विपक्षी एकता का कोई फायदा नहीं दिख रहा?
ऐसा नहीं कि विपक्षी एकता से गैर-बीजेपी दलों को कोई फायदा नहीं होगा। महाराष्ट्र, यूपी, बिहार, झारखंड, हरियाणा और कर्नाटक जैसे राज्यों में अगर भानुमति का कुनबा भी जोड़ दिया जाए तो चुनावी परिणाण में कुछ फायदा तो होगा ही। जिन लोगों के लिए येन केन प्रकारेण मोदी को 2019 में पीएम बनने से रोकना ही एकमात्र लक्ष्य है वह इससे उत्साहित हो सकते हैं। लेकिन जो 2019 के बाद का भारत भी देखते हैं और जो गणतंत्र के सामने खड़ी चुनौती का प्रतिकार ढूंढते हैं वह केवल विपक्ष की एकता से उत्साहित नहीं हो सकते।

मोदी बनाम कौन, सामने कौन सा चेहरा है?
पिछले चार साल में प्रधानमंत्री मोदी ने देश का सबसे बड़ा नुकसान यही किया है कि जिस चेहरे पर देश को भरोसा हुआ था उस चेहरे को झूठ बोल बोलकर बदनाम कर दिया है। इससे एक औसत नागरिक का आत्मविश्वास कम हुआ है। अब उसे जरूरत है किसी ऐसे नेता की है जिसकी ईमानदारी और जिसके कर्म और वचन पर वह भरोसा कर सके। बेंगलुरु में हुए जमावड़े में ऐसा कोई चेहरा मुझे नजर नहीं आता।

विपक्षी गठबंधन किस रूप में बनता दिख रहा है?
हो सकता है 1977 वाला प्रयोग दोहराया जाए या 1996 वाला प्रयोग दोहराया जाए। नागरिक के रूप में मैं उम्मीद करूंगा कि उतनी बुरी अवस्था ना हो। 1977 के बाद इंदिरा वापस आई 1996 के बाद बीजेपी आई। तात्कालिक सफलता मिल भी जाए तो दीर्घकाल में वहीं शक्ति मजबूत होती है जिसके खिलाफ यह गठजोड़ किया जाता है। हालांकि किसी न किसी तरह का विपक्षी गठजोड़ होगा ही। लेकिन राष्ट्रव्यापी मोदी विरोधी गठजोड़ बहुत उपयोगी नहीं होगा। जमीन में संघर्ष, जनआंदोलन, हो रहे हैं, वही चुनावी विकल्प के तौर पर स्थापित करना जरूरी है।

विपक्षी एकता की राह कितनी मुश्किल है, बीएसपी ने अभी से कह दिया है कि अच्छी संख्या में सीटें मिलीं तब गठबंधन की सोचेंगे?
इतिहास गवाह है कि ऐसे गठबंधन खींचतान से ही चलते हैं। चलाने के लिए बड़ा विचार, बड़ा व्यक्ति सामने हो तो चल पाते हैं। नहीं तो छोटे छोटे अहम में खत्म हो जाते हैं। जनता परिवार के बारे में किसी ने कहा था कि ये दो दिन एक दूसरे के साथ नहीं रह सकते और दो दिन एक दूसरे के बिना भी नहीं रह सकते। सबके मन में डर बहुत है हो सकता है वह कुछ वक्त तक इसलिए साथ चलें। लेकिन यह लंबा विकल्प नहीं हो सकता है।

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